गंगा !
तुम परंपरा से बंधकर बहती,
स्त्री तो हो
किंतु परंपरा से अलग जाकर
अबला अर्थ नहीं वहन करती
वो रुपवती धारा हो
जिसका वेग
कभी लुप्त नहीं होता ।
हां, किनारों का साथ पाकर
तुम ठहर जरुर जाती हो,
पर वह ठहराव,
तुम्हारे भीतर बहते सत्य को
कम नहीं करता।
शिव ने तुम्हें अपनी जटाओं में बांधा,
तुमने स्वयं को संयमित किया
पर जब त्रिनेत्र खुला,
तांडव की लय फूटी,
तब तुम्हारा प्रचंड प्रवाह
किसी के वश में नहीं रहा।
तुम मेरे भीतर की वही शक्ति हो
जो धैर्य रखती है,
पर समय आने पर
अपने सम्पूर्ण रूप में
सब कुछ बहा ले जाने की क्षमता से अनभिज्ञ नहीं रहती ।
रश्मि प्रभा