24 जनवरी, 2008

तीन स्तंभ !



















तुम
तीन,स्तंभ हो मेरी ज़िंदगी के,
जिसे ईश्वर ने विरासत में दिया .....

जाने कैसे कहते हैं लोग,
ईश्वर सुनता नहीं,
कुछ देखता नहीं ......

यदि यह सत्य होता,तो
मैं स्तंभ हीन होती।
तुम्हारे एक-एक कदम
मेरे अतीत का पन्ना खोलते हैं,
 पन्नों को देखकर,
फिर स्तंभ को देखकर
लोग नई बातें करते हैं......
यह दृष्टि-तुम्हारी देन है...

मेरी सफलता है यह
कि,
तुम संगमरमर से तराशे लगते हो
मेरा सुकून है-
तुम्हारे भीतर संगीत है प्यार का,तुम स्तंभ हो
मेरे सत्य का!

7 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत बढ़िया ।
    घुघूती बासूती

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  3. बहुत अच्छा सच लिखा यही तो हैं हमारे जीने का आधार ...

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  4. दीदी, बहुत मजबूत दिखते हैं आपके तीनों स्तंभ, मजबूत नींव जो मिला है विरासत में। बुरा नहीं मानिएगा, मेरी नजर नहीं लगती। मैं तो बस मुरीद बन के रह गया हूँ आपका। वास्तव में, कवी की पहुँच रवी से बढ़कर है। हर बात, हर परिस्थिति, हर कल्पना पर कविता, वो भी सतही नहीं, केवल स्तरीय नहीं, कल्पना से परे। आप ऐसा न सोचें कि मैं आपकी चापलूसी कर रहा हूँ, शानदार है यह तो, मैं अभिभूत हूँ। एक जगह आपने लिखा है, साहित्यिक मानसिकता ही नहीं विकसित हुई अभी तक वरना अश्लील किताबें एक क्षण में लूट जाती हैं, और आपसे मेरा परिचय आज हो रहा है, जबकि मैं साहित्य में रुचि रखता हूँ। लेकिन अफशोस नहीं है, मैं अभी तक आपकी ही रचनायें पढ़ रहा हूँ।

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  5. सच में ....और बहुत ही खूबसूरत ....और ये यूँ ही बना रहें ...

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  6. और ये स्तम्भ हमेशा मजबूत रहेंगे क्यूंकि नीव में आपने स्नेह त्याग जो सींचा है ......आमीन ....

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एहसास

 मैंने महसूस किया है  कि तुम देख रहे हो मुझे  अपनी जगह से । खासकर तब, जब मेरे मन के कुरुक्षेत्र में  मेरा ही मन कौरव और पांडव बनकर खड़ा रहता...