23 जनवरी, 2008

तुम्हारी सोच!!!


तुम्हारी नन्ही हथेली,
तुम्हारे नन्हें पांव,
तुम्हारी बिल्लौरी-सी चमकती आँखें,
तुम्हारा बचपन,
कैद रहा मेरे जेहन मे,
मेरे दिल मे,मेरे वजूद मे,..........
जो, मेरी सोच मे रंग लेता गया!
कब तुम्हारी ज़ुबान् कड़वी हुई,
कब तुम्हारी नज़रें तिरछी हुई,
कब तुमने "अपने घर" का वजूद कायम किया
मेरे मन को पता ही नही चला.........
पर,
जब मेरी सोच से भ्रम का पर्दा उतरा
तो आंसू कम पड़ गए......
मैंने अपनी इक्षाएं उढ़ेल दी थीं तुम्हारी खुशियों में,
जो भी किया,कम लगा.....
पर तुमने मेरी खुशियों को समझा तक नही,
औपचारिक चेहरा लेकर
टेढी मुस्कुराहट का जामा पहन लिया........
रोती हूँ,बहुत रोती हूँ पर अपनी सोच पर नही,
तुम्हारी सोच पर!!!

9 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छी कविता है। खूब लिखें।

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  2. धन्यवाद !
    दिल तक पहुँचने का प्रयास सफल है,जानकर प्रेरणा मिली .......आप सब मेरी प्रेरणा बने रहे,दिल तक पहुँचती रहूँ ,यही कामना है

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  3. "तुम्हारा बचपन,
    कैद रहा मेरे जेहन मे,"

    NICE POEM DEPICTING THE PAIN AND TARUMA OF PARENTING IN MODERN TIME.

    But i think that is the basic problem...
    parents are not able to accept and cope with the realities of kids growing up into adult ones.
    Adult behaviour is going to be definetly different from child behaviour.

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  4. दिल की भावनाओं से निकली है शायद यह कविता .:) अच्छी है

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  5. there is a century gap between you and me mom....आज कल तो मैंने कितने ही बच्चे को ये कहते सुना है...मैंने इस कविता को बहुत अच्छी तरह समझा! आपने जिसको इतना प्यार दिया,जिसके लिए आपने इतना कुछ किया फिर भी आपको लगा की आपने कुछ किया ही नहीं...वही आपको नहीं समझ पाया.........चलिए अब आप वो सब भूल जाए,अब आपको अपनी या किसी की भी सोच पर आँसू बहाने की जरूरत नहीं है........माँ,हँस दे हँस दे हँस दे ,हँस दे तू जरा...नहीं तो थोड़ा थोड़ा थोड़ा ,थोड़ा मुस्कुरा..............कविता के रूप मे आपके बीते हुए पल को जानकार अच्छा लगा,मगर आपका रोना अच्छा नहीं लगा और न कभी अच्छा लगेगा माँ

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  6. Practically तो यही कहेंगे ki क्यों रोती हो ? पर Immotionally i can understand u, so रोना स्वाभाविक है.,
    सही कहा रोना खुद की सोच पर नहीं सामने वाले की सोच पर ही आना चाहिए.. कब, कैसे, कहा पता भी नहीं चलता और लोग बदल जाते है, आज प्यार के मायने बदल गए है, भावनाए, स्नेह की कदर हर कोई नहीं कर पता, उसे समझना तो दूर की बात है. औपचारिकता हावी होती जा रही है...

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 मैंने महसूस किया है  कि तुम देख रहे हो मुझे  अपनी जगह से । खासकर तब, जब मेरे मन के कुरुक्षेत्र में  मेरा ही मन कौरव और पांडव बनकर खड़ा रहता...