20 फ़रवरी, 2008

आशीष...



माँ के गर्भ मे
अभिमन्यु ने चक्रव्यूह मे जाना सीखा
निकलने की कला जाने
उससे पहले , निद्रा ने माँ को आगोश मे लिया
भविष्य निर्धारित किया
चक्रव्यूह उसका काल बना !
मेरी आंखें, मेरा मन , मेरा शरीर
मंत्रों की प्रत्यंचा पर जागा है
तुम्हारे चक्रव्यूह को अर्जुन की तरह भेदा है
मेरी आशाओं की ऊँगली थाम कर सो जाओ
विश्वास रखो -
ईश्वर मार्ग प्रशस्त करेंगे


8 टिप्‍पणियां:

  1. bahut sundar bhavuk kavita hai,bahut pasand aayi.

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  2. Behtar kavita, lakin mere hisab se मेरी आशाओं की ऊँगली थाम कर सो जाओ me "so Jao" ki jagah "Aage Bado" hota to sayad jayada behtar hota.

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  3. बहुत अच्छी लिखी है दीदी....अच्छी लगी.

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  4. मन का वात्सल्य तो भरपूर है..पर कविता कहीं अधूरी सी लगी..

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  5. आशीष............ इस कविता में माँ का वत्सल्व मानो उमड़ आया है ........ रश्मि जी आपकी यह रचना बेहद भावनापूर्ण है..... अच्छी है........शुभकामनाएं........

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एहसास

 मैंने महसूस किया है  कि तुम देख रहे हो मुझे  अपनी जगह से । खासकर तब, जब मेरे मन के कुरुक्षेत्र में  मेरा ही मन कौरव और पांडव बनकर खड़ा रहता...