25 मार्च, 2009

रुख मोड़ना आता है .........


चिड़िया तिनके ले मशगूल है
- घर बनाने में,
रोशनदान वाली जगह पसंद है !
जब भी कोई बाहरी आवाज़ आती है,
चिड़िया मासूम निगाहों से
मुझे देखती है,
' तुम तो माँ हो !
मेरे नीड़ की अहमियत बताना ज़रा
इन उदासीन लोगों को,
देखना,
कोई मेरी मेहनत नाकाम ना कर जाए !'
...........................................
छोटी कटोरी में पानी देकर
मैं उसे भरोसा देती हूँ..........
अपनी नन्हीं चोंच उसमें डुबाकर
वह आश्वस्त होती है,
और मैं !
अतीत के स्याह सायों में
डूबने लगती हूँ..............
डर ! डर ! डर !!!
यही तो था मेरे पास .............
मेरा दिल स्वतः कहता है,
' मैं जानती हूँ चिड़िया,
माँ के दर्द, उसकी ख्वाहिशों को,
उसके भय को........
तुम निर्भय रहो,
एक माँ तुम्हारी सुरक्षा में खड़ी है,
आँधी,तूफ़ान सब रोक दूँगी
तुम्हारे नन्हे चिडों के लिए
..........
मुझे तूफानों का रुख
मोड़ना आता है !'

20 मार्च, 2009

खामोशी !


दुःख की सरहदों पर
अपने-अपने दर्द को लिए
- हम दोस्त हैं ....
कहीं कोई दिल दहलानेवाला
विस्फोट नहीं होता...
होती है,
आंसुओं की मौन भाषा
- जहाँ सारी दूरी
मिट जाती है ,
रह जाती है
- आंखों की शून्यता !
- जहाँ
देश विभाजित नहीं होता,
न ही जाति,धर्म की
चिंगारियां होती हैं.......
होती हैं बस -
अपने-अपने हिस्से को खोने की खामोशी,
खामोशी !
सिर्फ़ खामोशी !!!

14 मार्च, 2009

मैं और आत्मा !


कई बार ......
मैं अलग होती हूँ,
मेरी आत्मा अलग होती है,
- हम अजनबी की तरह मिलते हैं !
मेरी आंखों से अविरल आंसू बहते हैं,
और आत्मा -
हिकारत से मुझे देखती है !
.......दरअसल, उसने कई बार मुझे उठाया है,
और मैं !
हर बार,
उद्विग्नता के घर जा बैठती हूँ !
आत्मा ने अक्सर
मेरे लड़खडाते क़दमों को
हौसले की स्थिरता दी है,
परमात्मा का रूप दिखाया है.....
पर मैं,
अक्सर अपनी कमज़ोर सोच लिए
उससे परे खड़ी हो जाती हूँ !
मुझे पता है ,
बिना उसके
मेरा कोई अस्तित्व नहीं ....

फिर भी-
अपनी नियति का बोझ
उस पर डाल देती हूँ.....
श्वेत पंखों के बावजूद
आत्मा अपनी उड़ान रोक
मेरे हौसले बुलंद करती है
और हिकारत से देखते हुए ही सही
मुझमें समाहित हो
मुझे एक मकसद दे जाती है..............

09 मार्च, 2009

नन्हें मायने !


मेरे पास
मेरी कल्पनाओं का
विस्तृत आकाश है,
और है -
कल्पनाओं के मेघ,
चाँद का खिलौना,
तारों की चमकती पोटली,
एक सतरंगी इन्द्रधनुष !
.....
हर दिन,
आकाश को टांगती हूँ,
कभी श्वेत,कभी श्याम बादलों को
उड़ा देती हूँ....................
रात-दिन के क्रम में
अपने खजाने से
चाँद,सूरज निकालती हूँ,
तारों के धवल चादर पर,
मोहक सपने बिखेर देती हूँ ,
अनंत इक्षाओं की प्राप्ति का
एक सूत्र देती हूँ..................
जब भी कोई तारा टूटता है,
लोग 'विश्' मांगते हैं
और टूटा तारा
फिर मेरी पोटली में !
कल्पनाओं के महासागर में....
मझे अपनी ज़िन्दगी के
नन्हें-नन्हें मायने मिल जाते हैं.........................

एहसास

 मैंने महसूस किया है  कि तुम देख रहे हो मुझे  अपनी जगह से । खासकर तब, जब मेरे मन के कुरुक्षेत्र में  मेरा ही मन कौरव और पांडव बनकर खड़ा रहता...