आँचल की गांठ से
चाभियों का गुच्छा हटा
हर दिन
तुम एक भ्रम बाँध लिया करती
सोने से पहले
सबकी आँखें पोछती
थके शरीर के थके पोरों के बीच
भ्रम की पट्टी बाँध …
हमारे सपनों को विश्वास देती
. !!!
अब जब भ्रम टूटा है
सत्य का विकृत स्वरुप उभरा है
तब …
एथेंस का सत्यार्थी बनने का साहस
तुम्हारे कमज़ोर शरीर के सबल अस्तित्व में
पूर्णतः विलीन हो चुका है !
तुम सच कहा करती थी -
अगर हर बात से पर्दा हटा दिया जाये
तो जीना मुश्किल हो जाये ….
तुम्हारे होते सच को उजागर करने की
सच कहने-सुनने की
एक जिद सी थी
अब - एक प्रश्न है कुम्हलाया सा
कि सच को पाकर होगाभी क्या !!!
कांपते शरीर में
न जाने कितनी बार
कितने सत्य को तुमने आत्मसात किया
दुह्स्वप्नों के शमशान में भयभीत घूमती रही
और मोह में बैठी
हमारे चमत्कृत कुछ करगुजरने की कहानियाँ सुनती गई
जो कभी घटित नहीं होना था …
तुम्हारा सामर्थ्य ही मछली की आँखें थीं
जो हमें अर्जुन बनाती
तुम्हारी मुस्कान - हमारा कवच भी होतीं
और हमारे मनोरथ की सारथि भी
… अब तो न युद्ध है
न प्रेम
है - तो एक सन्नाटा
जिसे मैं तुमसे मिली विरासत की खूबियों से
तोड़ने का प्रयास करती हूँ
….
कृष्ण,पितामह,कर्ण,अर्जुन,विदुर ….
सबकी मनोदशा चक्रव्यूह में अवाक है
प्रश्नों का गांडीव हमने नीचे रख दिया है
क्योंकि ……
अब कहीं कोई प्रश्न शेष नहीं रहा
उत्तर के बियाबान में हमें सिर्फ तुम्हारी तलाश है !!!