कल हम नहीं होंगे
सोचकर,
…… ……
अपने दिमाग में भी
एक घुप्प सन्नाटा होता है
…।
ये जो चीज
मैंने छुपाकर
संभालकर रखी है
वो फिर अपने मायने खो देगी
सरप्राइज़ तो बिल्कुल नहीं रह जाएगा
और यह जो डायरी सी लिखती हूँ
नहीं रहने पर
पता नहीं किस शब्द के क्या मायने हो जाएँ !
लॉकर की चाभी गुम हो गई है
अचानक नहीं रही
तो बहुत फेरा हो जायेगा !
अभी कई काम भी निबटाने हैं
घर अस्त-व्यस्त है
थकान,दर्द के बावजूद
ठीक तो करना ही है
ये दीवारों पर बारिश से चित्तियाँ हो गई हैं
… ठीक है
ये मेरा अपना घर नहीं
लेकिन किराया दे रही हूँ,
कोई आएगा तो रखरखाव में
मेरी सोच,
मेरे रहन-सहन की ही झलक मिलेगी
…
नवरात्रि नज़दीक है
उससे पहले जितिया
पूजा के लिए सफाई अभियान शुरू करना है
…
यूँ अचानक नहीं रहने पर
सबकुछ धरा रह जाता है
जैसे अम्मा का इयरफोन, चश्मा ....…
पर धरे रह जाने से पहले तो
सबकुछ सिलसिलेवार होना ज़रूरी है न
अम्मा की भी यही समस्या थी
- एटीएम बदलवा दो
- इस इयरफोन से ठीक सुनाई नहीं देता
- सर दर्द - लगता है कुछ हो गया है
- kbc आने का समय हो तो बताना
- एक कॉपी दो, लिख दूँ सवाल -जवाब इसके
बच्चों के काम आएँगे …
…
अब अम्मा नहीं है
पर उसकी वे सारी आदतें,
जिनपर हम झल्ला जाते थे
टेक लगाकर भीतर बैठ गई हैं …
सुनो न अंकू
वो स्टिकर का काम
वो प्रिंट
वो … … …
देखो न मिक्कू ये काम बाकी है
खुशबू, जरा वो काम देख लेना
… पता है समय नहीं
तुमलोगों को याद भी है
फिर भी !
अब जवाब हो गया है
- तुम एकदम अम्मा हो गई हो"
… मुस्कुराती हूँ,
अम्मा की बेटी हूँ न।
फिर सोच की लहरें आती है
और लगता है - कह ही लूँ,
भूल जाऊँगी
.... आजकल भूलने भी लगी हूँ
वो भी बहुत ज्यादा
महीने का हिसाब करने के बाद भी
लगता है,
शायद पैसे देने रह गए हैं
किसी दिन दे देने के बाद दुबारे दे सकती हूँ !
उपाय निकाला है
लिख लेती हूँ
बशर्ते याद रहे कि लिख लिया है !
दीदी गुस्साती है
'अरे तुम हम सबसे छोटी हो'
ये तो सच है
पर भूल जाती हूँ तो क्या करूँ !
अब क्या बताऊँ -
अम्मा बगल में सोने से पहले विक्स
अमृतांजन,मूव सबकुछ लगाती थी
नवरत्न तेल भी
मैं अक्सर कुनमुनाती -
अम्मा, इस गंध से मैं बीमार हो जाऊँगी
.... अब रोज सोने से पहले मैं मूव,अमृतांजन लगाती हूँ
दर्द ही इतना है कंधे में
लगाते हुए सोचती हूँ
- अंकू कुछ कहती नहीं
परेशानी तो होती ही होगी …
दिन में कई बार हाथ बढ़ाती हूँ उसकी तरफ
- उँगलियाँ खींच दो
पढ़ाई रोककर वह ऊँगली खींचती है
और मैं - अम्मा की तकलीफें सोचती हूँ
और पूर्व की बातें
…
'क्या सोच रही हो अम्मा?'
… 'ऐसे ही कुछ,कुछ'
- फ़ालतू सोचने से कुछ होगा ?
???????????
अब मैं सारे दिन कुछ कुछ सोचती हूँ
अपनी समझ से सार्थक
दूसरे की दृष्टि से फ़ालतू !!!
सोचते हुए चेहरा अजीब सा बन जाता है
जगह कोई भी हो - घर,मॉल, खाने की कोई जगह
.... बच्चे टोकते हैं,
माँ, तुम किसी को नहीं देख रही
पर लोग तुम्हें देख रहे हैं
हँसी आ जाती है
लेकिन अगले क्षण वही हाल !
राशन लेते लेते अचानक
मोबाइल पर पंक्तियाँ टाइप करने लगती हूँ
घर जाते कहीं भूल न जाऊँ
कई बार तो "माँ $$$$$$$$$$$$$$$$$$$$"सुनाई भी नहीं देता
मुँए ये ख्याल
जगह ही नहीं देखते
फिल्म देखते हुए मैं सोचती हूँ
- खत्म हो, घर लौटूँ तो कुछ लिखूँ !
सामने क्या
हर कमरे में अम्मा की तस्वीर लगा रखी है
जिधर जाउँ
हँसकर कहती हैं
'क्यूँ ? हो गया न मेरे जैसा?"
मैं मस्तिष्क में ही बड़बड़ाती हूँ
- हम्म्म हो ही जाता है
और हो जाने के बाद ही समझ आती है ये आदतें !!