12 जून, 2015

किसे लिखूँ किसे रहने दूँ !




मैं चाहती हूँ अपने को लिखना
लिख नहीं पाती  …
खोल सकती हूँ मैं मन की हर परतों को
लेकिन सिर्फ मैं' हूँ कहाँ !

चेहरे से निकलते चेहरे
जितने चेहरे उतने उद्धृत रूप -
श्रृंगार रस, हास्य रस, करुण रस
रौद्र रस, वीर रस, भयानक रस
वीभत्स रस, अद्भुत रस,शांत रस
जाने-अनजाने पात्र
रसों की अलग अलग मात्राएँ !

सोचती रही  …
भयानक रस लिखूँ
करुण रस लिखूँ
या वीभत्स !!
या फिर वह अद्भुत शांत रस
जो समानांतर जीवन का आधार रहा
जिसने श्रृंगार रस की उत्पत्ति की
हास्य रस का घूंट लिया
और रौद्र रस के आगे
वीर रस का जाप किया !

रसों के तालमेल को हूबहू लिखना
संभव नहीं होता
जीवन के वृक्ष में कई फल लगते हैं
मैं' तो सिर्फ जड़ें हैं  
और जड़ों की मजबूती में
आग,पानी,तूफ़ान,बर्फ सब होते हैं
तो,
किसे लिखूँ
किसे रहने दूँ !

13 टिप्‍पणियां:

  1. मन का सब कुछ वैसे भी कहाँ हो पाता है ... जो हो सके उसको जरूर लिख जाना चाहिए ... मन की गठरी खोलते शब्द ...

    जवाब देंहटाएं
  2. कुछ भी लिखें
    किसी के लिये भी लिखें
    बस लिखें लिखती रहें
    जिसे जरूरत होती है
    वो निचोड़ लेता है
    अपने हिसाब से
    अपने लिये रस ।

    जवाब देंहटाएं
  3. कशमकश रहती ही है क्या लिखा जाये, क्या छोडे.

    जवाब देंहटाएं
  4. तुलसी ने कहा है..हरि अनंत हरि कथा अनंता...नानक ने कहा है..मत करो वर्णन वह बेअंत है..कबीर कहते हैं अकथ कहानी बखानी न जाये..आप सही निष्कर्ष पर पहुँची हैं..

    जवाब देंहटाएं
  5. खुद ही खुद को शब्दों में अभिव्यक्त कर पाना असंभव है
    सिर्फ प्रयास मात्र कर सकते है !

    जवाब देंहटाएं
  6. बहुत खूब आदरणीया।
    क्या लिखूँ कहकर मन के सभी रंगों को खोलकर रख दिया आपने।
    चन्द पंक्तियों में सबकुछ बयां कर दिया आपने।

    जवाब देंहटाएं
  7. जीवन वृक्ष में लगे हर फल को चखते जाना, स्वाद बताते जाना। जहर अमृत सब पीते जाना, मार्ग दिखाते जाना... यही तो कवि कर्म है। किंकर्तव्यविमूढ़ता भी आनी है। इसे भी अभिव्यक्त करना है...

    जवाब देंहटाएं
  8. मनोभावों के जरिये साहित्य के सभी रसों को समझा दिया इस रचना ने। बेहतरीन प्रस्तुति।

    जवाब देंहटाएं
  9. सच कहा , मुसकिल होता है अपने बारे मे लिखना , चाहते हुये भी नही लिख पाते सटीक शब्द , शुद्ध वर्णन ....

    जवाब देंहटाएं

एहसास

 मैंने महसूस किया है  कि तुम देख रहे हो मुझे  अपनी जगह से । खासकर तब, जब मेरे मन के कुरुक्षेत्र में  मेरा ही मन कौरव और पांडव बनकर खड़ा रहता...