21 अक्टूबर, 2015

रावण का ही एक अंश अपने भीतर जगाओ




कौन है रावण ?
कैसा है देखने में ?
दस सिर तो कहीं नज़र नहीं आते
ना ही इतना संयम
कि वाटिका में सीता हो
और वह उसके पास न जाये !
कहाँ है वह रावण
जिसने अपहरण तो किया
परन्तु मर्यादा का उलंघन नहीं किया
कहाँ है वह रावण
जिससे राम ने भी ज्ञान लिया ?
हर कथा को तमाशा बना दिया लोगों ने
एक पुतला खड़ा किया
जलाया  …
और सीताओं की बलि चढ़ा दी !
रामायण,
राम को दुहराने से क्या रामराज्य आ जाता है
कैकेयी की भर्त्सना क्यूँ ?
किसके भीतर मंथरा और कैकेयी नहीं
कौन नहीं देना चाहता राम को वनवास
यानी घर निकाला ?
लांछन लगानेवाली उंगलियाँ
हर घर,चौराहे,नुक्क्ड़ पर है
सच पूछो तो वह राम कहीं नहीं
जो बड़े से बड़ा यज्ञ पत्नी की प्रतिमा संग करे
रावण का संहार करे
साथ ही उसकी विद्वता का सम्मान करे  … !
रामलीला इतना आसान नहीं मेरे भाई
ना ही कोई तमाशा है
जिसे कहीं भी किया जाए
किसी को भी पात्र बना दिया जाए !
त्यौहार मनाना ही चाहते हो
तो रावण का ही एक अंश अपने भीतर जगाओ
सीता की इच्छा का मान रखो
.... 

20 अक्टूबर, 2015

आत्मकथा





मन के चूल्हे पर
जब अतीत और वर्तमान उफनता है 
तो भविष्य के सकारात्मक छींटे डालते हुए सोचती हूँ 
लिखूँगी आत्मकथा'  … 
नन्हें कदमों से आज तक की कथा !
पर जब जब लिखना चाहा 
तो सोचा,
पूरी कथा एक नाव सी है 
पानी की अहमियत 
किनारे की अहमियत 
पतवार,रस्सी,मल्लाह 
भँवर, बहते हुए पत्ते
किनारे के रेतकण 
कुछ पक्षी 
कुछ कीचड़ 
कमल  …
सूर्योदय, सूर्यास्त 
 बढ़ने और लौटने की प्रक्रिया  … 
यही सारांश है हर आत्मकथा का !

17 अक्टूबर, 2015

हर तुम" के नाम "मैं का खत




प्रिय तुम,

तुम्हारे मन में भी 
ख्यालों का बवंडर उठता होगा 
बंद आँखों के सत्य में 
तुम्हारे कदम भी पीछे लौटते होंगे 
इच्छा होती होगी 
फिर से युवा होने की 
दिल-दिमाग के कंधे पर 
गलतियों की जो सजा भार बनकर है 
उसे उतारकर 
नए सिरे से 
खुद को सँवारने का दिल करता होगा !
आँगन, 
छत वाले घर में 
पंछियों के मासूम कलरव संग 
फिर खेलने का मन करता होगा 
किसी कोने में खत लिखने की चाह होगी 
डाकिये के आने पर 
ढेर सारे लिफ़ाफ़े, अंतर्देशीय के बीच 
अपने नाम के खत की तलाश होगी !
अतीत को भूलने की बात तुम भी करते हो 
पर हर घड़ी अतीत में लौटने की चाह 
पुरवइया सी मचलती होगी  … 
पीछे रह गए कुछ चेहरों की तलाश तुम्हें भी होगी 
ग़ज़ल गुनगुनाते हुए 
दोपहर की धूप की ख्वाहिश तुम्हें भी होगी 
… 
तुम मुझसे अलग नहीं 
पगडंडियाँ, सड़कें 
शहर, देश का फर्क होगा 
पर लौटने की चाह एक सी है 
घर,प्यार,  … शरारतें 
तुम भी फिर से पाना चाहते हो 
मैं भी  … 

08 अक्टूबर, 2015

तस्वीर से निकले एहसास





अपने थे
देना था  -
कुछ वक़्त, कुछ ख्याल 
लेकिन,
इस देने में मैं रह गया खाली 
हँसी भी गूँजती है खाली कमरे सी !
मैंने सबको बहुत करीब से देखा 
यूँ 
जैसे उसे देखने के सिवा कुछ नहीं है मेरे पास 
कभी समझ सको,
सोच सको तो देखना तस्वीरों में मेरी आँखें 
स्थिर,मृतप्रायः लगती हैं !
इसका अर्थ यह नहीं 
कि मैंने किसी को अपना नहीं माना 
देना नहीं चाहा 
.... 
दरअसल किसी को मेरी ज़रूरत नहीं थी 
मेरे ख्याल उन्हें परेशान करते 
मेरा वक़्त उन्हें बेमानी लगता 
उन्हें मेरी सामयिक ज़रूरत थी 
फिर भी 
दुनियादारी, समाज 
और मेरा मन 
… मैं देता रहा 
बुझता गया 
भीड़ में झूठ बनकर हँसता गया 
लेकिन आह,
मैं इस चेहरे की भाषा को कैसे बदलता 
आँखों को चुप करके भी 
बोलने से कैसे रोकता 
!!! 
इसीलिए 
न चाहकर भी 
तस्वीरों में मैं बुत ही नज़र आया 

05 अक्टूबर, 2015

सोचना एक आम दिनचर्या है !





चलती हुई सोचती हूँ 
- सारे काम-काज तो हो ही जाते हैं 
बर्तन भी धो लेती हूँ कामवाली के न आने पर 
भीगे कपडे फैलाकर, 
सूखे कपडे तहाकर 
बैठ जाती हूँ कुछ लिखने-पढ़ने 
… इस बीच लेटने का ख्याल कई बार आता है 
पर नहीं लेटती  … 
कभी थोड़ी पीठ अकड़ती है 
कभी घुटना दर्द करता है 
हाथ कंधे के पास से जकड़ा हुआ लगता है 
तो बिना नागा उम्र को उँगलियों पर जोड़ती हूँ 
जबकि पता है 
फिर भी  … !
फिर सोचती हूँ,
अगले साल भी इतनी तत्परता से चल पाऊँगी न 
और उसके अगले साल  … 
"जो होगा देखा जायेगा" सोचकर 
खोल लेती हूँ टीवी 
बजाये मन लगने के होने लगती है उबन 
सोचने लगती हूँ, 
पहले तो कृषि दर्शन भी अच्छा लगता था 
झुन्नू का बाबा 
चित्रहार 
अब तो अनेकों बार आँखें टीवी पर होती हैं 
ध्यान कहीं और  … 

ये वाकई उम्र की बात है 
या अकेले होते जाते समय का प्रभाव ?
पर यादों की आँखमिचौली तो रोज चलती है 
काल्पनिक रुमाल चोर भी 
अमरुद के पेड़ पर भी सपनों में तेजी से चढ़ती हूँ 
… 
फिर भी,
सुबह जब बिस्तरे से नीचे पाँव रखती हूँ 
 स्वतः उम्र जोड़ने लगती हूँ 
सोचने लगती हूँ 
जितनी आसानी से अपने बच्चों को 
पाँव पर खड़ा करके झूला झुलाती थी 
क्या बच्चों के बच्चों को झुला पाऊँगी !!!

सच तो यही है 
कि अभी तक कोई छोटा मोटा काम नहीं किया है 
गोवर्धन की तरह ज़िन्दगी को ऊँगली पर उठाया है 
फिर अब क्यूँ नहीं ??
… 
यह सोचना एक आम दिनचर्या है !

एहसास

 मैंने महसूस किया है  कि तुम देख रहे हो मुझे  अपनी जगह से । खासकर तब, जब मेरे मन के कुरुक्षेत्र में  मेरा ही मन कौरव और पांडव बनकर खड़ा रहता...