20 अक्टूबर, 2015

आत्मकथा





मन के चूल्हे पर
जब अतीत और वर्तमान उफनता है 
तो भविष्य के सकारात्मक छींटे डालते हुए सोचती हूँ 
लिखूँगी आत्मकथा'  … 
नन्हें कदमों से आज तक की कथा !
पर जब जब लिखना चाहा 
तो सोचा,
पूरी कथा एक नाव सी है 
पानी की अहमियत 
किनारे की अहमियत 
पतवार,रस्सी,मल्लाह 
भँवर, बहते हुए पत्ते
किनारे के रेतकण 
कुछ पक्षी 
कुछ कीचड़ 
कमल  …
सूर्योदय, सूर्यास्त 
 बढ़ने और लौटने की प्रक्रिया  … 
यही सारांश है हर आत्मकथा का !

5 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (21-10-2015) को "आगमन और प्रस्थान की परम्परा" (चर्चा अंक-2136) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. पानी के किनारे
    रेत पर ठहरी
    हुई भी होती है
    नाव कभी कभी
    पतवार भी होती है
    पर कहीं दूर पड़ी हुई
    हर नाव हमेशा
    पानी में कहाँ होती है ?

    सुंदर अहसास !

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  3. क्या लिखें क्या छोड़ें .. सभी जरुरी है वक्त पड़ने पर .. बहुत बढ़िया चिंतनशील रचना !

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  4. खुद को पढ़ना लिखना एक यात्रा है। अच्छी कविता।

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  5. "कुछ अच्छा था,कुछ बुरा था
    जो लिखा आत्मकथा था/"
    खूबसूरत रचना....
    http://yugeshkumar05.blogspot.in/
    मेरे ब्लॉग पर आपको आमंत्रण :)

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एहसास

 मैंने महसूस किया है  कि तुम देख रहे हो मुझे  अपनी जगह से । खासकर तब, जब मेरे मन के कुरुक्षेत्र में  मेरा ही मन कौरव और पांडव बनकर खड़ा रहता...