05 अक्तूबर, 2015

सोचना एक आम दिनचर्या है !





चलती हुई सोचती हूँ 
- सारे काम-काज तो हो ही जाते हैं 
बर्तन भी धो लेती हूँ कामवाली के न आने पर 
भीगे कपडे फैलाकर, 
सूखे कपडे तहाकर 
बैठ जाती हूँ कुछ लिखने-पढ़ने 
… इस बीच लेटने का ख्याल कई बार आता है 
पर नहीं लेटती  … 
कभी थोड़ी पीठ अकड़ती है 
कभी घुटना दर्द करता है 
हाथ कंधे के पास से जकड़ा हुआ लगता है 
तो बिना नागा उम्र को उँगलियों पर जोड़ती हूँ 
जबकि पता है 
फिर भी  … !
फिर सोचती हूँ,
अगले साल भी इतनी तत्परता से चल पाऊँगी न 
और उसके अगले साल  … 
"जो होगा देखा जायेगा" सोचकर 
खोल लेती हूँ टीवी 
बजाये मन लगने के होने लगती है उबन 
सोचने लगती हूँ, 
पहले तो कृषि दर्शन भी अच्छा लगता था 
झुन्नू का बाबा 
चित्रहार 
अब तो अनेकों बार आँखें टीवी पर होती हैं 
ध्यान कहीं और  … 

ये वाकई उम्र की बात है 
या अकेले होते जाते समय का प्रभाव ?
पर यादों की आँखमिचौली तो रोज चलती है 
काल्पनिक रुमाल चोर भी 
अमरुद के पेड़ पर भी सपनों में तेजी से चढ़ती हूँ 
… 
फिर भी,
सुबह जब बिस्तरे से नीचे पाँव रखती हूँ 
 स्वतः उम्र जोड़ने लगती हूँ 
सोचने लगती हूँ 
जितनी आसानी से अपने बच्चों को 
पाँव पर खड़ा करके झूला झुलाती थी 
क्या बच्चों के बच्चों को झुला पाऊँगी !!!

सच तो यही है 
कि अभी तक कोई छोटा मोटा काम नहीं किया है 
गोवर्धन की तरह ज़िन्दगी को ऊँगली पर उठाया है 
फिर अब क्यूँ नहीं ??
… 
यह सोचना एक आम दिनचर्या है !

10 टिप्‍पणियां:

  1. क्य्या गोवर्धन नाथने सोचा था अन्त कैसे होगा?

    यहि जिन्दगि है ना?

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  2. कुछ लोग लगता नहीं है
    कुछ भी सोचते हैं
    पता होता है उन्हे
    हमेशा के लिये यहीं
    इसी तरह से कहीं
    ना कहीं जरूर रहना है
    सोचने वाले सोचते
    रह जाते हैं और
    इसी सब में
    रहते भी हैं और
    नहीं भी रह पाते हैं ।

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  3. मन की उड़ान कौन रोक पाया है ...बदलाव को कोई भी जल्दी से स्वीकार नहीं करता ..आदत में जो होता है और जो मन को अच्छा नहीं लगता उसी को मन ज्यादा सोचता है कि क्यों अच्छा नहीं ... काश कि ऐसा होता, वैसा होता ...
    ..मनोभावों का चिंतनशील प्रस्तुति

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  4. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, उधर मंगल पर पानी, इधर हैरान हिंदुस्तानी - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  5. और मज़े की बात ये कि किसी खास विषय पर सोचने बैठो ,तो ऐसे धीमे-चुपके से दूसरी दिशा में बहने लगती है कि पता ही नहीं चलता .

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  6. उम्र के इस पड़ाव में शरीर का मनोभावों से सामंजस्य न बिठा पाने की दुविधा तो सालती ही है पर चिंतन रुकना नहीं चाहिए.

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  7. गोवर्धन की तरह ज़िन्दगी को ऊँगली पर उठाया है
    yadi soch ki unchaiii itni upar ho to ... phir baki sb bekar hai ....gazzzzb

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  8. सही है दी ॥सोचते तो सभी रहते है कुछ न कुछ बिना कुछ सोचे तो जैसे दिन ही नहीं हुआ सा लगता है। सोचे बिना तो जैसे जीवन अधूरा सा लगता है।

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