कोशिश की थी कभी कभी
पर मैं एहसासों की समीक्षा नहीं कर पाई
शब्दों की गंगा जब जब मेरे आगे आई
मैं एक बूंद में समाहित हो गई।
शहर अलग
किनारे अलग
तो मैंने नाम से दोस्ती की
जिस जिस की कलम से गंगा अवतरित हुई
मैं समाधिस्थ हो गई !
आज आलोड़ित गंगा
"मेरे हिस्से की धूप" बन
सरस दरबारी के नाम से
मेरे आगे बह रही है
और कह रही है -
"यह हथेलियाँ ... सच्ची हमदर्द होती हैं
बिना कहे हर बात जान लेती हैं "
सरस दरबारी की कलम से निकली गंगा से अवतरित ये एहसास बहुत कुछ कहेंगे आपसे ...
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