कोशिश की थी कभी कभी
पर मैं एहसासों की समीक्षा नहीं कर पाई
शब्दों की गंगा जब जब मेरे आगे आई
मैं एक बूंद में समाहित हो गई।
शहर अलग
किनारे अलग
तो मैंने नाम से दोस्ती की
जिस जिस की कलम से गंगा अवतरित हुई
मैं समाधिस्थ हो गई !
आज आलोड़ित गंगा
"मेरे हिस्से की धूप" बन
सरस दरबारी के नाम से
मेरे आगे बह रही है
और कह रही है -
"यह हथेलियाँ ... सच्ची हमदर्द होती हैं
बिना कहे हर बात जान लेती हैं "
सरस दरबारी की कलम से निकली गंगा से अवतरित ये एहसास बहुत कुछ कहेंगे आपसे ...
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आपके स्नेह से अभिभूत हूँ..:)
जवाब देंहटाएंआपके स्नेह से अभिभूत हूँ..:)
जवाब देंहटाएंमंगाते हैं ।
जवाब देंहटाएंआपकी तत्परता की मैं कायल हूँ
हटाएंजी ये तत्परता नहीं है। ब्लागिंग की दुनियाँ बहुत खूबसूरत है बस लोग इसी चीज को समझना शुरु कर लें तो सोचिये क्या से क्या हो जायेगी । अपना लिखना और औरों का लिखा पढ़ना जिस दिन सीखा जायेगा उस दिन क्या पता एक ब्लागर का वास्तविक जन्म हो जायेगा :)
हटाएंबहुत-बहुत बधाई भाभी ! रश्मि जी, बहुत सुंदर परिचय दिया !
जवाब देंहटाएंशुभकामनाएँ!!!
~सादर
अनिता ललित
सरस जी को हार्दिक शुभकामनाएँ । आपको भी ...
जवाब देंहटाएंसरस जी को बहुत बधाई !!
जवाब देंहटाएंसरस जी की सरस रचनाओं से मेरा भी परिचय है दीदी! और यह कह सकता हूँ कि आपका कथन अतिशयोक्ति नहीं! कोशिश करता हूँ इस भागीरथी में डुबकी लगाने की!
जवाब देंहटाएंसरस दरबारी जी को बधाई!
आपको और सरस जी को हार्दिक शुभकामनाएँ ।
जवाब देंहटाएंआपको और सरस जी को हार्दिक शुभकामनाएँ ..
जवाब देंहटाएंबहुत बधाई .....
जवाब देंहटाएंआपको और सरस जी को बहुत बहुत बधाई।
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