29 अगस्त, 2016

मेरे हिस्से की धूप




कोशिश की थी कभी कभी
पर मैं एहसासों की समीक्षा नहीं कर पाई 
शब्दों की गंगा जब जब मेरे आगे आई 
मैं एक बूंद में समाहित हो गई। 
शहर अलग 
किनारे अलग 
तो मैंने नाम से दोस्ती की 
जिस जिस की कलम से गंगा अवतरित हुई 
मैं समाधिस्थ हो गई !
आज आलोड़ित गंगा 
"मेरे हिस्से की धूप" बन 
सरस दरबारी के नाम से 
मेरे आगे बह रही है 
और कह रही है -

"यह हथेलियाँ  ... सच्ची हमदर्द होती हैं 
बिना कहे हर बात जान लेती हैं "

सरस दरबारी की कलम से निकली गंगा से अवतरित ये एहसास बहुत कुछ कहेंगे आपसे  ... 

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13 टिप्‍पणियां:

  1. आपके स्नेह से अभिभूत हूँ..:)

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  2. आपके स्नेह से अभिभूत हूँ..:)

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  3. उत्तर
    1. आपकी तत्परता की मैं कायल हूँ

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    2. जी ये तत्परता नहीं है। ब्लागिंग की दुनियाँ बहुत खूबसूरत है बस लोग इसी चीज को समझना शुरु कर लें तो सोचिये क्या से क्या हो जायेगी । अपना लिखना और औरों का लिखा पढ़ना जिस दिन सीखा जायेगा उस दिन क्या पता एक ब्लागर का वास्तविक जन्म हो जायेगा :)

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  4. बहुत-बहुत बधाई भाभी ! रश्मि जी, बहुत सुंदर परिचय दिया !
    शुभकामनाएँ!!!

    ~सादर
    अनिता ललित

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  5. सरस जी को हार्दिक शुभकामनाएँ । आपको भी ...

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  6. सरस जी की सरस रचनाओं से मेरा भी परिचय है दीदी! और यह कह सकता हूँ कि आपका कथन अतिशयोक्ति नहीं! कोशिश करता हूँ इस भागीरथी में डुबकी लगाने की!
    सरस दरबारी जी को बधाई!

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  7. आपको और सरस जी को हार्दिक शुभकामनाएँ ।

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  8. आपको और सरस जी को हार्दिक शुभकामनाएँ ..

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  9. आपको और सरस जी को बहुत बहुत बधाई।

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