09 अगस्त, 2016

होता हर बार यही है





घृणा तो मैं किसी से नहीं कर सकी
खुद को किनारे ज़रूर कर लिया
उनके जैसा बनना मेरे स्वभाव के लिए कठिन था
और निरंतर क्रोध या दुखी होना भी मेरे वश की बात नहीं थी !
मगरमच्छ के आँसू बहाना कहाँ संभव
यहाँ तो अपने आँसू सूख चले हैं
अति' के सीमा अतिक्रमण पर बह निकलते हैं
वरना आंतरिक रेगिस्तान में दहकता है मन
फफोलों को शुष्क आँखों से देखता है
फिर विगत के बसंत को याद करके
आगत को बसंत बनाकर
फूलों की खुशबू से वर्तमान को भर लेता है !!
ऐसे में एहसासों के बादल घिरते हैं
शब्द शब्द बरसते हैं
एक सोंधी सी खुशबू
कई मन
आँखों को छू जाती है
...
कोई सोचता है
मैं शब्दों की धनी हूँ
मैं सोचती हूँ
- मैं समय की ऋणी हूँ
अब कौन जाने !!! - पर होता हर बार यही है
मैं पर्ण कुटी बनाती हूँ
नियति शतरंज खेलती है
अभिमन्यु की मौत पर
कृष्ण की आँखें डबडबाती हैं
रोम रोम पीड़ा से भरता है
फिर भी,
कृष्ण लीला !!!!!!!!!!!!!!!!!!

11 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" गुरुवार 11 अगस्त 2016 को लिंक की गई है.... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. जब ईश्वर भी मूक दर्शक बनकर विवश हो जाता हैं, फिर इंसानों क्या बिसात होनी को टालने की ...
    बहुत सुन्दर

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  3. जीवन हर क्षण कुछ न कुछ सिखाता है...ख़ुशी-ख़ुशी स्वीकारें तो हमारे ही हित हैं है..प्रेरणादायक !

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  4. कृपया पढ़ें, हमारे ही हित में है.

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  5. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 11-08-2016 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2431 में दिया जाएगा
    धन्यवाद

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  6. लीली ही लीला हैंं ईश्वर की बस इन्सान ईश्वर नहीं है । सुन्दर ।

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  7. जीवन की इस लीला को कौन समझ सका है ...

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  8. Jo dhani hota hai wo hi rin ko samjh sakta hai ..... Jise aapne sehj shabdon me b kitni gehnta se vykt kiya hai .... Sadar

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