युद्ध कोई भी हो,उसका कोई परिणाम नहीं होता पार्थ, मान लेना है, वह जीत गया,वह हार गया । क्या तुम्हें अपनी जीत पर भरोसा था ? क्या तुम जीतकर भी जीत सके ? कर्ण की हार का दोषी दुनिया मुझे ठहराती है, फिर इस तरह मैं ही हारा !
दरअसल पार्थ, हार-जीत सिर्फ एक दृष्टिकोण है। दुर्योधन को समय ने क्रूर और उदण्ड बना दिया था, इसलिए वह दंड का भागी बना, अन्यथा ग़ौर करो, तो वह भी युद्ध में कुशल था, गांधारी उसे वज्र बनाकर अजेय बना ही देती, मृत्यु हिस्सा तो मेरे प्रयास से रह गया, ... क्योंकि, हार वह वहीं गया था, जब उसने द्रौपदी को अपनी जांघ पर बैठने को कहा, कर्ण की हार उसके मौन की वजह से तय हुई ।
हस्तिनापुर की उस सभा में, जब द्रौपदी का चीर खींचा गया, उस वक़्त हर देखनेवाले की हार निश्चित हो गई थी ।
पार्थ, किसी भी हार-जीत में कई मासूम बेवजह हार जाते हैं, इसका अर्थ यह बिल्कुल नहीं होता कि वह कमज़ोर था ! देखो न, तुम्हारी जीत सुनिश्चित करने में मैं कई बार हारा । मेरी सबसे बड़ी हार थी, जब मैंने कर्ण के आगे प्रलोभन दिया , उसके दर्द में घी डाला ।
युद्ध नीति कहो या राजनीति, कभी सही नहीं होती । कुछ प्राप्त नहीं होता, कालांतर में रह जाती हैं आलोचनाएं और मेरे आगे प्रश्न ...
तुम ही कहो, मैं मथुरा नरेश हारा कि जीता ?