06 अक्तूबर, 2021

हम आज भी वहीं खड़े हैं


 

हम आज तक वहीं खड़े हैं
जहां जला दी जाती थी बहुएं
घर का सारा काम 
उनके सर पर डाल दिया जाता था
 नहीं मिलता था उन्हें समय पर खाना
नहीं इजाज़त थी उनको
बिना नहाए रसोई में जाने की
मायके से किसी के आने पर
उल्लास से दौड़ने की . . .

हममें से ही कुछ स्त्रियों ने 
अपनी आंखों की गंगा को लुप्तप्रायः कर दिया
समाज हिकारत से कहने लगा,
पागल हो गई है औरत,
जिसके व्यवहार में पानी नहीं
वह घर के पानी का अर्थ क्या समझेगी
जब पति की भूख प्यास का ख्याल नहीं
तब इससे कोई और क्या उम्मीद रखेगा !
भीड़ से निकलकर किसी एक ने
जब आंखों की गंगा का आह्वान किया
सम्मान के दीये जलाए
तब उस स्त्री की आंखों से 
बमुश्किल निकली कुछ बूंदों ने
चेहरे पर उभरी सुकून की एक रेखा ने
उसे चरित्रहीन' सिद्ध किया ।

गंगा और गाय बनी स्त्री ने 
स्वयं में स्थित दुर्गा का आह्वान किया
और करने लगी संहार ...
जग जानता है,
जब भी कोई शक्ति उभरी है
तो उसके साथ विकृत
बुरी शक्तियां भी उभरी हैं
... वही हुआ ...
चतुर स्त्रियों ने उन स्त्रियों को जलाना शुरू किया,जो हित में खड़ी हुई थीं,
सही पुरुषों से जवाब मांगने लगीं
यह काम हम ही क्यों ?
की जगह
सारे काम तुम करो की गर्जना करने लगीं ।
दुर्गा ने रक्त पान किया था
इन स्त्रियों ने सारी वर्जनाएं तोड़ डालीं
रक्त के साथ मदिरा का सेवन किया
पुरुष सिर्फ क्यों" के हाहाकारी प्रश्नों के साथ
वह किया
कि पीड़ित स्त्रियों ने अपना दरवाज़ा बन्द कर दिया ।
सही गलत के मंथन में
विष निकला
और मनुष्य ने विष ले लिया
पूरे परिवार को पिला दिया
और अब वह अपने निर्मित दम्भ भरे महल में
पत्थर होता जा रहा है ।

इस धू धू जलते चक्रव्यूह में
एक प्रश्न है,
जब एक पुरुष स्त्री वेश धरकर
बिंदी,सिंदूर,चूड़ी,साड़ी पहनकर 
बाहर निकलता है
तो कोई उसे पुरुष नहीं कहता
फिर पुरुष के वेश में घूमनेवाली स्त्रियों को
स्त्री क्यों मान लिया जाए !!! 
शायद यही वजह है,
कि कुछ अपवादों को छोड़कर
हम आज भी वहीं खड़े हैं
जहां स्त्रियों को अपने अस्तित्व के लिए
अपनी सहनशीलता,विनम्रता से युद्धरत होना पड़ता है,
आगत की जमीन पर 
कुछ संदेशों के बीज डालने होते हैं
और शब्दों की अग्नि में
शब्दों का घी डालना पड़ता है ...

5 टिप्‍पणियां:

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