12 नवंबर, 2021

आओ, मिलकर बढ़ें ...


 

रुको, रुको
मिलने पर,
मोबाइल पर,
अर्थहीन मुद्दों को दफ़न करो,
चेहरे की उदासी
आवाज़ के खालीपन में
एक छोटी सी मुस्कुराहट लेकर
एक दूसरे को महसूस करो ।

सूक्तियों को विराम दो,
अपनी अच्छाइयों,
अपनी सहनशीलता से ऊपर उठकर
अपने रिश्तों की गुम हो गई अच्छाइयों पर गौर करो,
अपने अहम को,
अपनी शिकायत को त्यागकर
बिना कुछ कहे
सर पर हाथ रखो
गले मिल जाओ
... शिकायतों के तीखे पकवान रखो ही मत !...

उम्र और समय का तकाज़ा है,
कि वे सारी शिकायतें
जो अपने बड़ों के लिए
मन के कमरों में रो रही हैं,
उन्हें तुम मत दोहराओ
इस क्रम को भंग करो !
रिश्तों का मान चाहिए
तो मान देने की पहल तो करो !

प्रश्न उठाने से क्या होगा ?
प्रश्न और उत्तरों की लड़ाई
महाभारत से कम नहीं ...
बड़ा रक्तपात होता है
इस लड़ाई में कुछ नहीं मिलेगा
दिन व्यर्थ बीत जाएंगे,
इन्हें व्यर्थ क्यों बीत जाने दें
हर पल अमोल है...
दिन बीत जाने से
मन में काई जमती जाती है
उसकी फिसलन,चोट
और थकान के अर्थ
गहराते जाते हैं !

जो दूसरों से ढूंढते हो,
वह करके देखो,
बंजर हो गए हैं जो अपने
उन सब पर
समय के कुएं के जल का
रोज़ थोड़ा छिड़काव करो
मोबाइल है हाथ में
एक प्यार भरा मैसेज रोज करके देखो
जवाब आएगा
वह अपना कॉल बेल नहीं
दरवाज़े की सांकल खटखटाएगा
ड्राइंग रूम की गद्देदार कुर्सियों को परे करके
ठंडी ज़मीन पर औंधे होकर
दुनियाभर की बातें करेगा ।

शिकायतों के भय से
खुद तो उबरो ही,
औरों को भी उबारो
चाहते हो फिर से जीना
तो वे दीवारें
जो तुमने उठाई हैं
और हमने भी,
उन्हें गिराना है ...
रिश्तों की मज़बूत लौह सलाखें
कब से यों ही अनाथ सी पड़ी
जंग खा रही हैं
साथ आकर उसे हटाओ
एक ईंट हम निकालें
एक ईंट तुम निकालो
ऐसा करो
यदि प्यार है,
मिलने की शेष चाह है,
रिश्तों की अहमियत के चूल्हे में
आँच बाकी है तो...
...
समय समाप्ति का पर्दा गिरे
उससे पहले,
गलतफहमियों के बेरंग पर्दे
उतार कर फेंक दें !
आओ,
मिलकर बढ़ें ...
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5 टिप्‍पणियां:

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