भगवान थे जब उसकी आँखों में मोहक सपने थे,
कभी राधा,मीरा
तो कभी किसी अल्हड़ सी बारिश को देखकर
उसके मन में बिजली कौंधती,
ठंडी,शोख़ हवायें बहतीं ...
जिस दिन सपने टूटे,बिखरे
बिजली गिरी,
हवायें दावानल हुईं,
भगवान तब भी थे ।
वह रोई,
फूट फूटकर रोई,
मन के सारे दरवाज़े बंद कर दिए,
भगवान को बेरुख़ी से देखा,
कागज़ पर दर्द उकेरने लगी ...
उस दिन भगवान ने धीरे से
दबे पांव एक सुराख़ बनाया
... एक महीन सी किरण,
उसके कमरे में चहलकदमी करने लगी,
धीमी हवा ने सर सहलाया,
हर उतार-चढ़ाव को शब्द दिया,
जो जिजीविषा बन उसकी हक़ीक़त बने
अहा,
भगवान उस वक़्त भी मौजूद थे
और प्रयोजन,परिणाम का ताना बाना बुन रहे थे ।
जिस दिन मंच पर उपमाओं से सुशोभित वह खड़ी हुई,
उसने महसूस किया सोलहवां साल...
उस दिन वह हीर बन गई,
अदृश्य पर मनचाहे रांझे को
रावी के किनारे
खुद की राह देखते खड़ा देख
उसने प्रेम को जाना
भगवान को माना
वह राधा से कृष्ण हुई और
कृष्ण से कृष्णा हो गई।
सुन्दर
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार(१८-११-२०२१) को
' भगवान थे !'(चर्चा अंक-४२५२) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
बहुत खूब! वो कृष्ण से कृष्णा हो गई।
जवाब देंहटाएंगहन भाव रचना।
शानदार रचना
जवाब देंहटाएंअद्भुत लिखा। बहुत भावपूर्ण।
जवाब देंहटाएं