18 दिसंबर, 2007

सत्य



सत्य बोलो,

प्रिय बोलो

अप्रिय सत्य न बोलो

पर सच है-

मुझे हर पल डर लगता है

छनाआआक..........................

हर पल गिरने टूटने की आवाज़

क्या टूटता है?

शीशे-सा दिल या दिमाग???
झूठे होते शब्दों का शोर

थरथराते पाँव -.........

बेमानी खुददारी का गौरव ढोती हूँ -

'बैसाखी नहीं लूंगी गिरूंगी तो उठूँगी भी.....

'किसे दिखाती हूँ खुददारी?

कौन है बेताब ?

क्या है मतलब?

वक़्त कहाँ?

उदास शामों का ज़िक्र अब होता नहीं है...........

जीवन के सारे मायने बदल गए हैं....................

विरक्ति ...



पैसा बड़ा घृणित होता है
पैसे की भाषा दिल की भाषा से
पैनी और लज़ीज़ है
हर दर्द पैसे पर आ कर
मटमैला हो जाता है
सारे संबंध ठंडे हो जाते हैं
पैसों की गर्मी में !!!
क्या छोटा ,क्या बड़ा ,क्या तबका ......
सब पैसों से है
गीता का सार भी सुनना सुनाना
पैसों की खनक पर ,
बाह्य चकाचौंध पर निर्भर है
जो सच में सार को जाना
तो विरक्ति ......

14 दिसंबर, 2007

तलाश...





कभी - कभी अचानक एक हलकी-सी खरोच
सारे ज़ख्मों को ताजा कर जाती है ,
फिर उस वक़्त तलाश होती है उस व्यक्ति की -
जो जीवन की आपाधापी से अलग उस मर्म को समझ सके !
...नहीं ,नहीं किसी अपने की तलाश नहीं ,
वे तो क्षणिक होते हैं ,
सब जानकर भी बेतुके प्रश्न करते हैं !

एक वक़्त था - जब असामयिक आँधी मे ,
सुनामी लहरों के बीच ,
मैंने उन्हें आवाज़ दी थी ,...
सुनामी लहरों से बचने के लिए वे प्रायः दूर खड़े रहे .
एक - दो हथेलियाँ बढ़ी ,
पर ....मेरी हिचकियों से उन्हें परेशानी होती थी .
समझौता उन्हें नहीं ,
मुझे करना होता था ,न चाहते हुए भी खिलखिलाकर हँसना पड़ता था ...............

कोई निर्णय आसान नहीं था ,
कुएँ ,खाई ,समतल ज़मीन मे कोई फर्क नज़र नहीं आता था .
पर कुछ मकसद हो जीवन मे ,
तो वे उद्देश्य बन जाते हैं ...
मुझे भी जीवन का उद्देश्य मिला .

जिस दिन अंधी गहरी गुफा से बाहर ,
रोशनी की किरण झलकी -
विश्वास सुगबुगाया ,
'ज़िन्दगी मे बदलाव आता है ',
और उमीदों को नई ज़मीन मिली .
' कल ' दरवाज़े पर ' आज ' का दस्तक देने लगा .......
अतीत के दुह्स्वप्नो को भुला मैंने रंगोली सजाना शुरू किया .

पर उटपटांग प्रश्नों की खरोच से अतीत के ज़ख्म हरे हो जाते हैं
प्रश्नकर्ता अतीत का भयावह हिस्सा नज़र आता है ,
फिर बेचैन - सी मैं उस व्यक्ति को तलाशती हूँ ,
जो मेरे एहसासों को जी सके ............

10 दिसंबर, 2007


ॐ की प्रतिध्वनि शाश्वत होती है ,
दसों दिशाओं से उच्चरित होती है ,
करोड़ों शरीर का स्पर्श करती है ,
सुरक्षा घेरे का निर्माण करती है .........
शक्ति का आधार बन ,प्रकाशमान होती है
जहाँ तक सोच का विस्तार नही ,
वहाँ तक विस्तृत होती है .
मंदिर ,मस्जिद ,गुरुद्वारे ,चर्च में
अपना उज्जवल आकार लेती है .
मंदिर का शंखनाद ,सुबह का अजान ,गुरुद्वारे का सतनाम ,
यीशू के रूप में -ज्ञान का मार्ग प्रशस्त करती है !

09 दिसंबर, 2007

माँ , तुमने क्या किया !


कदम - कदम पर तुमने
अच्छी बातों की गांठ
मेरे आँचल से बाँधी .....
'उसमे और तुममे फर्क क्या रह जायेगा ?'
ऐसा कह कर ,
अच्छे व्यवहार की आदतें डाली .
मुझे संतोष है इस बात का
कि ,
मैंने गलत व्यवहार नहीं किया ,
और अपनी दहलीज़ पर
किसी का अपमान नहीं किया ,
पर गर्व नहीं है ....................
गर्व की चर्चा कहाँ ? और किसके आगे ?
हर कदम पर मुँह की खाई है !
अपनी दहलीज़ पर तो स्वागत किया ही
दूसरे की दहलीज़ पर भी खुद ही मुस्कुराहट बिखेरी है !
मुड़कर देख लिया जो उसने , तो जहे नसीब ....!!!
पीछे से तुमने मेरी पीठ सहलाई है .
खुद तो जीवन भर नरक भोगा ही
मुझे भी खौलते तेल मे डाल दिया
माँ , तुमने ये क्या किया !
मेरे बच्चे मेरी इस बात पर मुझे घूरने लगे हैं
क्या पाया ?...इसका हिसाब -किताब करने लगे हैं ,
अच्छी बातों की थाती थमा
तुमने मुझे निरुत्तर कर दिया
आँय - बाँय - शांय के सिवा कुछ नहीं रहा मेरे पास
.................हाय राम ! माँ , तुमने ये क्या किया !...............

08 दिसंबर, 2007

बोलती गुड़िया ...





कई रातों से मेरी आँखों में नींद नहीं है - शून्य में मन भटकता है ,वर्त्तमान मुझे अतीत में खींच ले गया है ! मेरे सामने जो गुड़िया बैठी है - "बोलती गुड़िया ",उस सुघड़ - सलोनी गुड़िया की जानकारी देने के लिए मुझे विस्तार में जाना होगा ! हिरण सी उसकी आँखें - काली - कजरारी , घनी पलकों के साए में बोलती थी .एक मोहक अदा से वह अपनी आँखें झपकाती थी .उसके घने रेशमी बाल पोनी टेल में बंधे , कंधे तक झूलते थे .माथे पर झुकी कुछ अल्हड़ लटें उसके सुकोमल चेहरे की मासूमियत बढाती थी .उसके मुस्कुराते होठों पर एक मधुर लय थी .वह बोलती तो आषाढ़ के रिमझिम फुहारों की तरह बोलती चली जाती - टिपिर ...टिपिर ...टिपिर ...टिपिर ...टिपिर ... बटन दबाते ही गाने लगती तो तब तक गाती जब तक सारा स्टॉक न ख़त्म हो जाए .उसके पैरों में स्प्रिंग लगे थे , ज़रा सा पुश करते ही वो जोरों से उछल जाती - ऐसे में उसका फ्रिल लगा लाल फ्रौक यूँ लहराता और बलखाता मानो गुड़िया अपने आप पर इतरा रही हो . घर आये आगंतुकों को वह गुड़िया दिखाई जाती और वे मंत्रमुग्ध हो कर उसे देखते रह जाते .उनके मुह से स्वतः निकल जाता था - "वाह !कितनी सुन्दर है ये गुड़िया ! बनाने वाले ने बड़ी लगन से इसे तैयार किया है ".

आज जो गुड़िया मेरे सामने बैठी है ,वह उस गुड़िया की छवि से कोसों दूर है .कुछ उत्तेजित , कुछ बुझे - बुझे अंदाज़ में जो कुछ वह मेरे आगे रखते जा रही थी ,ऐसा मैंने सोचा नहीं था .शून्य में देखती ,मुरझाये स्वर में गुड़िया बोल रही थी -

"समय का छल कहें या होनी का खेल , मेरी जगह बदल गयी .
ज़िन्दगी के एक नए अध्याय के आगे मैं खड़ी थी ,प्रशंसा की दृष्टि से मुझे ओत - प्रोत करने वाले मुझसे दूर थे .नया घर , भयावह सन्नाटा ... आदतन मेरी आँखें झपकी ,ठीक उसी समय उस छोटे से कमरे में साँसे लेता नया अध्याय गरज उठा - 'तुम्हारी यह आँखें झपकाने की आदत ,तुम्हारा मुस्कुराना ,बोलना ,गीत गाना ,उछलना और इतराना ,उफ़ ! बेहद भोंडी और उबाऊ लगती है .'
घबराकर मैंने चारों और अपनी आँखें घुमाई ,कुछ भी जाना -पहचाना ,अपना सा नहीं लगा .मेरे चेहरे पर एक डर की लकीर सी खींच गयी , उस कमरे के पोर - पोर में व्याप्त नए एहसास ने मेरी स्थिति का जायजा लेते हुए सुकून की सांस ली .मेरी सहमी आँखों में आंसू उमड़ने लगे की एक जोरदार धक्के से मैं गिर पड़ी .दर्द से कराह निकली तो ठहाका सुनाई दिया .फिर मेरे दोनों पैरों को मजबूती से पकड़ कर उस दानव ने मेरा स्प्रिंग उखाड़ दिया .वह स्प्रिंग जिसके बलबूते पर मैं उछलती थी , उसे घूरे की गंदगी में फ़ेंक कर उसने ऊंची आवाज़ में कहा - 'अब नहीं उछल पाओगी गुड़िया .तुम्हारा यह करतब ख़त्म .ओह !पहली बार ही तुम्हारा उछलना देख कर मैं बुरी तरह ऐंठ गया था .लोगों की प्रशंसा सुन कर इक्षा हुई थी की उसी वक़्त तुम्हारा स्प्रिंग मरोड़ दूं .आज के दिन का मुझे बेसब्री से इंतज़ार था .'
मैंने झुक कर अपने पैरों की ओर देखा .स्प्रिंग के ऊपर एक बेस था जो रह गया था .खुद को समझाया - इस बेस के सहारे खड़ी रह लूंगी ,शायद चलने का अभ्यास भी हो जाए .यह सोच कर मेरी आँखों से अनवरत आंसू बहते रहे कि मैं अब उछलने वाली गुड़िया नहीं रही .
आये दिन के अजीबों गरीब एहसास के कारण मेरा चेहरा ज़र्द पड़ता गया .समझ नहीं पाती थी - हंसू या रोऊँ ! नक्कारखाने में तूती की आवाज़ कौन सुनता ?
अचानक एक दिन उसने मेरे दोनों हाथ पीछे कर के बाँध दिए .जब तक मैं कुछ समझती , मेरी घनी पलकें उखाड़ दी गयी .उस रात दरवाज़ा बंद करके अपने आप को आईने में देख कर मैं फूट - फूट कर रोई थी .मुझे बदसूरत करने का यह कितना हिंसक प्रयास था .कितने सवाल मेरे मन में उठे ,मैं किससे पूछती .तभी दरवाज़ा पीट कर आंधी की तरह वह भीतर आया और मेरी आँखों में उमड़े प्रश्नों के जवाब में उसने चिल्लाना शुरू किया -
'मैं तोड़ - फोड़ में यकीन करता हूँ .बचपन में कबूतरों को बाथ - टब में डुबो कर मैं उनके पंख उखाड़ता था .उनका फड़फड़ाना मेरी खिलखिलाहट का कारण बनता था .आज का दिन !मनहूस है न तुम्हारे लिए .च ...च ..च ... आज तुम अपनी घनी पलकों से वंचित हो गयी .अब आँखें कैसे झपकाओगी ?मूर्ख गुड़िया !ये सब तुम्हारे चोंचले थे .अब तुम इस बदसूरत चेहरे को लेकर न टिपिर टिपिर बोलोगी ,न गाने गाओगी .अब शून्य में आँखें फाड़े बिट -बिट देखती रहो .'

मेरी आँखों से नींद उड़ गयी .दिन के उजाले से मैं बचने लगी ,रात का अँधेरा मुझे गहरी साजिश करता लगने लगा .समय के छल और होनी के खेल ने मुझे जीते जी मार दिया . उस रात में अपनों को आवाज़ दे रही थी की आकर मेरी दशा देखो .तभी यह एहसास हुआ जैसे किसी ने मेरे माथे पर हाथ रखा .इस सुखद स्पर्श की अनुभूति लिए मेरी आँखें लग गयी .
पिछवाडे में मुर्गे ने बांग दी तो मैं चौंक कर उठी .लगा जैसे मेरा कुछ खो गया है .अपनी सांस मुझे रूकती सी लगी .मेरे घने बालों का पोनी टेल जड़ से काट कर नीचे फेंका हुआ था .जाने किस शक्ति के साथ मैं बिजली की गति से कमरे के बाहर निकली .मैंने नहीं देखा की वहाँ कौन - कौन है .बस मैंने चीख कर पूछा था -'किसने काटे मेरे बाल और क्यूँ ...'
आँखें निकले ,हाथ चमकाता वह सामने आया था - 'दिखाओ अपनी कूबत की तुम क्या कर सकती हो !मैंने काटे तुम्हारे बाल .अब तुम यह शक्ल किसीको नहीं दिखा सकती हो ...जाना चाहती हो तो जाओ .अभी निकलो यहाँ से ...' और उसने मेरे फ्रिल वाले ख़ूबसूरत फ्रौक की भी धज्जी उड़ा दी
-'लो अब हुआ काम तमाम .प्रशंसा की कौन कहे ,लोग तुम्हे देख के भाग खडे हो जायेंगे ,अब इतरा कर देखना '

अपमान और अत्याचार के सैलाब में सर से पाँव तक डूब गयी .
कहाँ था किनारा ...?'कहाँ जाऊँ ,किसके पास जाऊँ ' के प्रश्न ने मुझे दहला दिया ...अपने भीतर झंझावात लिए मैं कैसे बढ़ती गयी , मुझे याद नहीं .होश आया तो मैंने खुद को वही पाया जहाँ पहले हुआ करती थी .अपने - परायों का समूह मुझे घेर कर खडा था .गहरी चुप्पी के बीच दबी - दबी सिसकियाँ ...शायद ये वे लोग थे जो मुझे सजाया - संवारा करते थे .सभी मेरा हाल जानने को उत्सुक थे .कितनों की आँखों में आक्रोश की लाली थी ,बदले की भावना में कितनों ने दांत पीसे ,सभी के होठो पर एक ही बात थी - 'हाय ! बेचारी गुड़िया .'

मेरी कहानी जिसने भी सुनी ,देखने आया और यह सिलसिला कई दिनों तक चलता रहा .समय हवा का रुख बदलता है ,यह बात समझ में आने लगी ...धीरे - धीरे सहानुभूति के स्वर बदलने लगे .लोग मेरे ही सामने जाने कितने दृष्टांत प्रस्तुत करने लगे की किस गुड़िया के साथ क्या हुआ और अंत में सपाट स्वर में अफ़सोस व्यक्त करते चल देते -'बुरा हुआ .अब यह कभी नहीं कूद पायेगी ,बेचारी !कितनी अदा से आँखें झपकाती थी ...' इसी बीच किसी दूसरे की आवाज़ ऊपर उठती -'देखा था न घने - घुंघराले बालों की वह पोनी टेल ?हाय !इसीको देख कर मैं अपनी गुड़िया के बालों को नए सिरे से बांधा था और वह फ्रिल वाली फ्रौक भी क्या फ्रौक थी !' लोगों के 'च च ' करना मुझे उपहास उड़ाना लगने लगा .ऐसे लोगों के बीच मेरी पीड़ा घटने के बजाय और बढ़ गयी .कभी करतब दिखाने वाली मैं अब दया और मज़ाक का पात्र बन गयी थी .
कितनों की आँखों में मुझे एक तृप्ति दिखी - 'लो हो गई छुट्टी .अब न कूद सकोगी न आँखें झपका सकोगी और न लहराके अपनी इतराहट ही दिखा पाओगी ...'
भाग्य का खेल और जीवन की विडम्बना मान कर चलने वालों ने यह मान कर लम्बी सांस ली की आये दिन कितनी गुडियाओं का यही हश्र होता है .टिका - टिपण्णी करने और सीख - उपदेश देने वाले आये और चलते बने .ज़िन्दगी के इस नए अध्याय को मैं बहुत करीब से देखा ,समझा और महसूस किया - मेरी स्वाभाविक गति मर गयी .परन्तु बड़ा से बड़ा व्यवधान भी समय की गति को रोक नहीं पाता है .
अचानक एक दिन - मुझे बनाने वाले कारीगर ने मुझे मेरी जगह से उठाकर बच्चों के बीच रख दिया .मुझे अपने बीच पाकर बच्चों के चेहरे खिल गए - किसी ने मुझे सहलाया ,किसी ने दुलारा ,गले लगाया ,किसी ने कंधे पे टिका कर थपकी दी ,किसी ने बार - बार मेरी पप्पी ली .बच्चों के सरल व्यवहार ने मेरे भीतर संजीवनी का काम किया .मेरे भीतर जो कांच निरंतर चुभ रहे थे उनका दर्द छूमंतर हो गया .
नन्हें कारीगरों ने मुझे नहला - धुला कर चमका दिया .आनन - फानन में मेरी पलकें बना दी गयी .मेरा कला बेस हटा कर दो नन्हें जूते दाल दिए गए जो पहले से ही उनके खिलौनों की पिटारी में थे .किसी ने मेरी ऊँगली थाम कर मुझे चलाना शुरू कर दिया और मैं चलने लगी .बच्चों द्वारा किये गए इस करिश्मे को देख कर मुझे बनाने वाला हर्षातिरेक से भर उठा .बच्चों में शामिल हो कर उसने मेरे माथे पर घने घुंघराले काले बालों की विग लगा दी और एक चमकता हुआ सुन्दर फ्रौक पहना दिया जिसमे फ्रिल लगे थे .देखते ही देखते मैं सिंडरेला बन गयी .मुझे सजा - संवार कर नन्हें साथियों के साथ मुझे बनाने वाले ने मुझे एक ख़ूबसूरत शो केस में रख दिया .मैंने अपने पुराने अंदाज़ में पलकें झपका कर अपने साथियों के प्रति शुक्रिया जताई .मुझे मुस्कुराता देख कर मेरे कारीगर ने अरसे बाद सुकून की सांस ली .एक बार फिर देखने वालों की भीड़ उमड़ पड़ी .कायाकल्प देख कर लोगों ने दातों तले ऊँगली दबाई -'वाह !ये तो कमाल हो गया .'
मैं पुनः चर्चा का विषय बन गयी .मेरे घुंघराले बाल ,घनी पलकें ,सुन्दर फ्रौक के घेरे और मणिपुरी नृत्य की मुद्रा ने यह सिद्ध किया की हैवानियत के आगे प्यार की जीत होती है .लोग ,जो चैन की सांस लेकर गए थे उनके चेहरे स्याह पड़ गए .आँखों ही आँखों में विचार विमर्श करने के बाद उन लोगों ने बड़े अनुभवी अंदाज़ में मेरे कारीगर को समझाना शुरू किया -'तुमने तो अपनी गुड़िया बेच दी थी न ?तो क्या यह बात शोभा देती है की तुम उसे अपने शो केस में रख लो ?अरे , बीते कल को ढोते रहना ठीक नहीं ...आगे तुम जैसा ठीक समझो ,हमें तो जो कहना था वह कह दिया .' खिलौनों की मासूमियत तक सिमटा मेरा कारीगर ऐसे लोगों से अपनी बात नहीं कह पता था .सारे दिन के प्रश्नों का रास्ता तय करके जब वह शो केस का शटर लगाने आता तो मेरी आँखें उससे बोलती -'इन लोगों का सामना करते हुए तुम बिलकुल नहीं घबराना और किसी भी हाल में मुझे इस शो केस से नहीं निकालना .देखना ,बहुत जल्द ही तुम्हारे पास हर तरह की मिटटी ,शेप देने को लकडियाँ ,छोटी - बड़ी कूचियाँ और रंगों की ढेर लग जायेगी .' मेरी बातें सुनकर कारीगर मेरे चेहरे पर हाथ फेरता और फिर मूक भाव से सोने चला जाता .
अचंभित रह गया वह जब एक दिन मुझे क्षत - विक्षत करने वाला उसके सामने कई दिनों से उदासी की चादर ओढे अपनी लम्बी गाडी से उतरा .उसकी आँखें आंसुओं में डूबी थी .कारीगर के मुह से कोई शब्द निकलते ,इसके पहले ही वह व्यक्ति उसके पैरों पे गिर पड़ा -'मैंने समझने में भूल की . मैं इस अलौकिक गुड़िया में छिपी आपकी कारीगरी को देख नहीं पाया ...गुड़िया तो 'वीनस ' है ,सौंदर्य की देवी !मैं माफ़ी मांगने का हक़दार तो नहीं पर मुझे एक मौका दें ...!'
हिचकियाँ लेते उस व्यक्ति को देखने के लिए आनन - फानन में लोगों की भीड़ लग गयी ,बच्चे दरवाज़े की ओट में सहम कर खडे हो गए -'क्या हमारी गुड़िया चली जायेगी ?'

निरीह बने उस व्यक्ति ने समूह पर दृष्टि डालते हुए अपनी गाडी से घुंघराले बालों का सेट ,आई लैशेस ,बेशकीमती फ्रौक ,पर्फ्युम्स, जापानी पंखा ,और न जाने क्या - क्या ...निकाल कर कारीगर के आगे रख दिए .ठगा सा रह गया कारीगर .कुछ लोगों ने चीजों पर विस्फारित दृष्टि डाली और झटके से मुंह घुमा लिया .वक्रभंगिमा की यह बात छिपी न रह सकी -'अब गुड़िया के क्या कहने ...!'
कुछ लोग उस व्यक्ति के लिए भावुक हो उठे .कारीगर ने बड़ी बेचारगी से मेरी ओर देखा .उपस्थित दृश्य से निर्विकार मैंने अपनी पलकें झपकायी - 'कुछ भी सच नहीं है .सालों मैं इसके कमरे में बंद रही हूँ ,मेरी एक - एक ऊँगली मोड़ - तोड़कर यह सुख की साँसे लेता था .मेरे चेहरे का दर्द ही इसका सुकून था ,मेरी कराह सुन कर यह ठहाके लगता और सिर हिला - हिलाकर लगातार कहता चला जाता था - तुम्हारी सारी क्षमताओं को मैं मिटटी में मिला दूंगा .'
इसके बहते आंसुओं पर मत जाना .अपनी मनमानी क्रूरता का तमाशा करने के बाद आंसू बहाना इसकी आदत है !'
उड़ती नज़र से मेरी ओर देख कर उस व्यक्ति की एक - एक नसें उद्वेलित होती रही ,भीतर ही भीतर घनघोर मंथन चलता रहा -'एक बार सिर्फ एक बार यह गुड़िया हाथ लग जाए ...फिर तो ......सिर ही धड़ से खींचकर प्रवाहित कर दूंगा !'
उसके आने - जाने और पश्चाताप करने का क्रम जारी रहा ,मेरे अंदाज़ बदलते गए .जीवन का अर्थ मेरे आगे सपष्ट होता गया और मैं एक - एक पल को जीने के लिए सशक्त होती चली गयी .परन्तु रात के सन्नाटे में मुझे लगता - कोई स्त्री मेरे भीतर दीवार से पीठ टिकाए उदास खड़ी है ...भीतर ही बुदबुदाती है ,रोती है ...भीतर ही अपनी खामोशी बिछाकर लेट जाती है .ऐसे में मेरी मणिपुरी नृत्य मुद्रा जकड जाती है और अपने चारों ओर के शून्य को देखती ,मैं आज तक अपने आप से यही कहती रही हूँ -
'लपकती लौ, ये स्याही, ये धुआं, ये काजल
उम्र सब अपनी इन्हें गीत बनाने में कटी
कौन समझे मेरी आँखों की नमी का मतलब
ज़िन्दगी वेद थी ,पर जिल्द बंधाने में कटी ...!'"

एहसास

 मैंने महसूस किया है  कि तुम देख रहे हो मुझे  अपनी जगह से । खासकर तब, जब मेरे मन के कुरुक्षेत्र में  मेरा ही मन कौरव और पांडव बनकर खड़ा रहता...