18 दिसंबर, 2007

सत्य



सत्य बोलो,

प्रिय बोलो

अप्रिय सत्य न बोलो

पर सच है-

मुझे हर पल डर लगता है

छनाआआक..........................

हर पल गिरने टूटने की आवाज़

क्या टूटता है?

शीशे-सा दिल या दिमाग???
झूठे होते शब्दों का शोर

थरथराते पाँव -.........

बेमानी खुददारी का गौरव ढोती हूँ -

'बैसाखी नहीं लूंगी गिरूंगी तो उठूँगी भी.....

'किसे दिखाती हूँ खुददारी?

कौन है बेताब ?

क्या है मतलब?

वक़्त कहाँ?

उदास शामों का ज़िक्र अब होता नहीं है...........

जीवन के सारे मायने बदल गए हैं....................

6 टिप्‍पणियां:

  1. सत्‍य अप्रिय ही होता है। सुंदर कविता के लिए बधाई।

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  2. सत्‍य हमेशा अप्रिय ही होता है। सत्‍य लिखने के लिए बधाई

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  3. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  4. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" गुरुवार 02 सितम्बर 2021 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  5. क्या टूटता है?

    शीशे-सा दिल या दिमाग???

    काश !समझ पाते ,मर्मस्पर्शी सृजन ,सादर नमन रश्मि जी

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  6. सटीक भावों का हृदय स्पर्शी प्रवाह।
    उत्तम भावाभिव्यक्ति।

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एहसास

 मैंने महसूस किया है  कि तुम देख रहे हो मुझे  अपनी जगह से । खासकर तब, जब मेरे मन के कुरुक्षेत्र में  मेरा ही मन कौरव और पांडव बनकर खड़ा रहता...