सन्नाटा अन्दर हावी है ,
घड़ी की टिक - टिक.......
दिमाग के अन्दर चल रही है ।
आँखें देख रही हैं ,
...साँसें चल रही हैं
...खाना बनाया ,खाया
...महज एक रोबोट की तरह !
मोबाइल बजता है ...,
उठाती भी हूँ -
"हेलो ,...हाँ ,हाँ , बिलकुल ठीक हूँ ......"
हँसती भी हूँ ,प्रश्न भी करती हूँ ...
सबकुछ इक्षा के विपरीत !
...................
अपने - पराये की पहचान गडमड हो गई है ,
रिश्तों की गरिमा !
" स्व " के अहम् में विलीन हो गई है
......... मैं सन्नाटे में हूँ !
समझ नहीं पा रही ,
जाते वर्ष से गला अवरुद्ध है
या नए वर्ष पर दया आ रही है !
........आह !
एक अंतराल के बाद -किसी का आना ,
या उसकी चिट्ठी का आना
.......एक उल्लसित आवाज़ ,
और बाहर की ओर दौड़ना ......,
सब खामोश हो गए हैं !
अब किसी के आने पर कोई उठता नहीं ,
देखता है ,
आनेवाला उसकी ओर मुखातिब है या नहीं !
चिट्ठी ? कैसी चिट्ठी ?
-मोबाइल युग है !
खैर ,चिट्ठी जब आती थी
या भेजी जाती थी ,
तो सुन्दर पन्ने की तलाश होती थी ,
और शब्द मन को छूकर आँखों से छलक जाते थे
......नशा था - शब्दों को पिरोने का !
.......अब सबके हाथ में मोबाइल है
............पर लोग औपचारिक हो चले हैं !
......मेसेज करते नहीं ,
मेसेज पढ़ने में दिल नहीं लगता ,
या टाइम नहीं होता !
फ़ोन करने में पैसे !
उठाने में कुफ्ती !
जितनी सुविधाएं उतनी दूरियां
वक़्त था ........
धूल से सने हाथ,पाँव,माँ की आवाज़ .....
"हाथ धो लो , पाँव धो लो "
और , उसे अनसुना करके भागना ,
गुदगुदाता था मन को .....
अब तो !माँ के सिरहाने से ,
पत्नी की हिदायत पर ,
माँ का मोजा नीचे फ़ेंक देता है बेटा !
क्षणांश को भी नहीं सोचता
" माँ झुककर उठाने में लाचार हो चली है ......"
.......सोचने का वक़्त भी कहाँ ?
रिश्ते तो
हम दो ,हमारे दो या एक ,
या निल पर सिमट चले हैं ......
लाखों के घर के इर्द - गिर्द
-जानलेवा बम लगे हैं !
बम को फटना है हर हाल में ,
परखचे किसके होंगे
-कौन जाने !
ओह !गला सूख रहा है .............
भय से या - पानी का स्रोत सूख चला है ?
सन्नाटा है रात का ?
या सारे रिश्ते भीड़ में गुम हो चले हैं ?
कौन देगा जवाब ?
कोई है ?
अरे कोई है ???????????????