चलते-चलते
सांय-सांय सी ख़ामोशी
और वक़्त के आईने में मैं !
बहुत धुंधला नज़र आता है सबकुछ
डर लगता है !
जीत की ख़ुशी
और अल्पना पर
प्रश्नों के रंग बिखरे होते हैं...
आदत है सहज हो जाने की
वरना..
कुछ भी तो सहज नहीं !
हर कमरे में
डर और शोर का अंदेशा..
स्वाभाविक ज़िन्दगी के साथ
सहज रिश्ता नहीं लगता
खुद पर शक होता है
जी रहे हैं
या भाग रहे हैं !
छलावे -सी ज़िन्दगी के
अलग-अलग सांचों से गुजरना
जीना नहीं कहते
ना ही यह ठहराव है ..
मुझे लगता रहा
मैंने ज़िन्दगी में रंग भर लिए
पर वक़्त कहता है-
मैं कुछ नहीं
सारे अल्फाज़ झूठे हैं मेरे !
वक़्त के इस बयान पर
सांय-सांय सी एक ख़ामोशी
मुझे घेर लेती है
और मैं -
दूर-दूर तक
नज़र नहीं आती !