25 फ़रवरी, 2011

कशिश




माना - ज़िन्दगी भाग रही है
माना - कहीं कोई ठहराव नहीं है
माना - भौतिकवादी हो गए हैं सब
माना - good morning से good night तक कोई तालमेल नहीं रहा
माना - भावनाओं से पेट की आग नहीं बुझती
माना - "स्व" की संकुचित भाषा पैनी हो गयी है

पर मानो -

आज भी ॐ से शुभप्रभात की ज्योत जलती है
आज भी आशीर्वाद की ज़रूरत है
आज भी ज़रूरत है उन भावनाओं की
जो दूसरो की भूख को समझते हैं
आज भी, इस भाग-दौड़ में
कई विस्मित,खाली आँखें कुछ ढूंढ रही हैं
आज भी, मेहमान को देवता मानने वाले दुर्बल शरीर हैं
आज भी कुछ घरों से कोई खाली हाथ नही जाता
आज भी,
जिसे तुम राख मान रहे हो
उसके अन्दर अब भी चिंगारी है
संस्कारों के पदचिह्न आज भी हैं,
मूल्यांकन की तदबीर आज भी है
और मानो
आज भी इसमें ही कशिश है....

47 टिप्‍पणियां:

  1. जिसे तुम राख मान रहे हो
    उसके अन्दर अब भी चिंगारी है
    संस्कारों के पदचिह्न आज भी हैं,
    मूल्यांकन की तदबीर आज भी है
    और मानो
    आज भी इसमें ही कशिश है.

    बहुत सुंदर और बिल्कुल सच ,मैं तो सहमत हूं आप से

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  2. सच ही आज भी इन सब बातों में बहुत कशिश है ...भले ही लोगों की सोच में बदलाव आया है ...अच्छी प्रस्तुति

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  3. आज भी,
    जिसे तुम राख मान रहे हो
    उसके अन्दर अब भी चिंगारी है
    संस्कारों के पदचिह्न आज भी हैं...
    RASHMI JEE,ITNI BEHATAR RACHNA KE LIYE....AAPKI LEKHNI KO SALAAM.

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  4. हम कितने भी आधुनिक क्यों न हो जाएँ अपने जड़ मूल से कभी अलग नहीं हो पायेंगे.

    बहुत ही अच्छी कविता.

    सादर

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  5. ;जिसे तुम राख मान रहे हो

    उसके अन्दर अब भी चिंगारी है '

    नैराश्य मिटाकर आशा का संचार करती है आपकी सुन्दर रचना

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  6. सच ही है वक्त कितना भी बदल जाये ..हमें प्यार की जरुरत हमेशा रहती है.
    सुन्दर रचना.

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  7. जिसे तुम राख मान रहे हो
    उसके अन्दर अब भी चिंगारी है
    संस्कारों के पदचिह्न आज भी हैं,
    मूल्यांकन की तदबीर आज भी है
    और मानो
    आज भी इसमें ही कशिश है....

    एकदम सच कहा है ....बहुत ही गहन भावों के साथ बेहतरीन अभिव्‍यक्ति ।

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  8. जिसे तुम राख मान रहे हो
    उसके अन्दर अब भी चिंगारी है
    संस्कारों के पदचिह्न आज भी हैं,
    मूल्यांकन की तदबीर आज भी है
    और मानो
    आज भी इसमें ही कशिश है....
    बिलकुल सही कहा। अगर जडों की कशिश मर जाये तो पेड सूख जाता है। इस लिये वो अपनी कशिश नही खोता। आभार।

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  9. जिसे तुम राख मान रहे हो
    उसके अन्दर अब भी चिंगारी है
    संस्कारों के पदचिह्न आज भी हैं,
    मूल्यांकन की तदबीर आज भी है
    और मानो
    आज भी इसमें ही कशिश है.

    कितना बदल जाये ज़माना संस्कारो की जडें आज भी बहुत गहरी हैं। सुन्दर प्रस्तुति।

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  10. बहुत सुन्दर दीदी ! कुछ बातें ऐसी होती है जो न बदले तो अच्छा है !

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  11. जो बातें जीवन के शाश्वत से जुड़ी हैं वे अपने मूल्य को कभी नहीं खोती हैं. ये यथार्थ है और सदैव रहेगा. परिवर्तन होते रहते हैं लेकिन ये ऐसे सत्य हैं जो सदैव ऐसे hi rahenge .

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  12. इसलिए कहते हैं आशा पर आकाश टिका है।

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  13. जिसे तुम राख मान रहे हो
    उसके अन्दर अब भी चिंगारी है
    संस्कारों के पदचिह्न आज भी हैं,
    मूल्यांकन की तदबीर आज भी है
    और मानो
    आज भी इसमें ही कशिश है....

    बिलकुल, वो कशिश आज भी है और संभवत: हमेशा रहेगी कही न कही, किसी न किसी हृदय में|

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  14. उस कशिश का अंतिम स्वाद ही तो आज भी जीने दे रहा है

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  15. उस कशिश का अंतिम स्वाद ही तो आज भी जीने दे रहा है

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  16. हाँ ! सही कहा ..हर चीज़ में कशिश है ..अनमोल वचन

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  17. "संस्कारों के पदचिह्न आज भी हैं,
    मूल्यांकन की तदबीर आज भी है
    और मानो
    आज भी इसमें ही कशिश है...."

    सच कहा आपने
    आज भी इनमें ही कशिश है
    बहुत सुन्दर

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  18. संस्कारों के पदचिह्न आज भी हैं,
    मूल्यांकन की तदबीर आज भी है
    और मानो
    आज भी इसमें ही कशिश है....
    bahut hi khoobsurat.....

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  19. दुनिया कितनी ही बदले ...
    संस्कारों में आज भी कशिश है !

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  20. जिसे तुम राख मान रहे हो
    उसके अन्दर अब भी चिंगारी है
    संस्कारों के पदचिह्न आज भी हैं,
    मूल्यांकन की तदबीर आज भी है
    और मानो
    आज भी इसमें ही कशिश है.
    .

    बहुत सुंदर

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  21. Haan! Maan liya ...lekin ye bhi maniye duniya ke sabse bade Hippocrates ham hindustaani hai...Bhagat Singh hona chahiye....Lekin mera beta nahi... Kiran bedi ho lekin meri beti nahi....Bhrastachaar khatm ho...lekin hamare ghar se nahi

    Aapke moolyon ka poori tarah se samarthan karte hui sirf apni baat kahi hai

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  22. अपनी बात अपने परिवेशिये माहौल में कहने का अधिकार हमारा है .... हाँ लिखा मैंने है, मेरा बेटा आर्मी में है (इकलौता) बेटी बहुत पहले से बाहर के सारे काम कर देती है .... माना सुबह से रात तक के तालमेल में अनगिनत परिवर्तन हैं, पर ये भी मानो - सिखलाने का दायित्व हमारा है !

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  23. जिसे तुम राख मान रहे हो
    उसके अन्दर अब भी चिंगारी है
    संस्कारों के पदचिह्न आज भी हैं..
    bahut achchhi rachna .

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  24. आज समाज बदलाव के दौर से गुजर रहा है .. ऐसे में संस्कारों के पदचिन्ह पर चलते जाना कोई मामूली बात नहीं है ..
    तभी सार्थक जीवन उदैश्यपूर्ण है.

    बेहद सुन्दर रचना मैम..
    आदर
    रोहित..

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  25. गुलाम जिंदगी !
    चंद तारीखों में लिपटी
    एक इतिहास जिंदगी !

    अलख जगाती कविता !

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  26. जिसे तुम राख मान रहे हो
    उसके अन्दर अब भी चिंगारी है
    संस्कारों के पदचिह्न आज भी हैं,
    मूल्यांकन की तदबीर आज भी है
    और मानो
    आज भी इसमें ही कशिश है....

    रश्मि जी इतनी सुंदर कविता के बेहद आभार. समाज में हो रहे बदलाव पर एक कटाक्ष भी.

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  27. जिसे तुम राख मान रहे हो
    उसके अन्दर अब भी चिंगारी है
    संस्कारों के पदचिह्न आज भी हैं,
    मूल्यांकन की तदबीर आज भी है
    और मानो
    आज भी इसमें ही कशिश है.
    .
    इन शब्दों पे वाह वाह करना आसान है , इनसे शमा रौशन करना बहुत ही मुश्किल

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  28. बहुत अच्छी...काश यह ज़रूरतें यूँ ही बनी रहे...हमेशा .

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  29. जिसे तुम राख मान रहे हो
    उसके अन्दर अब भी चिंगारी है

    नाउम्मीदी के दौर में आशा का उजास फ़ैलाती सुन्दर रचना.
    सादर,
    डोरोथी.

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  30. सही कहा आपने ....मैं सहमत हूँ ! शुभकामनायें आपको !

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  31. मूल्यांकन की तदबीर आज भी है
    और मानो
    आज भी इसमें ही कशिश है....

    बिलकुल सही कही आपने।

    सादर

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  32. जिसे तुम राख मान रहे हो
    उसके अन्दर अब भी चिंगारी है
    संस्कारों के पदचिह्न आज भी हैं,
    मूल्यांकन की तदबीर आज भी है

    एकदम सही...
    बहुत सुंदर...

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  33. आपकी किसी पोस्ट की हलचल है ...कल शनिवार (५-११-११)को नयी-पुरानी हलचल पर ......कृपया पधारें और अपने अमूल्य विचार ज़रूर दें .....!!!धन्यवाद.

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  34. बहुत सुन्दर/सार्थक रचना दी...
    सादर...

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  35. जिसे तुम राख मान रहे हो
    उसके अन्दर अब भी चिंगारी है

    Adhbhut....

    Bahut sikhne milta hai aapni rachnaon ko padhkar...Dhanyavaad...

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  36. आज भी ॐ से शुभप्रभात की ज्योत जलती है
    आज भी आशीर्वाद की ज़रूरत है
    आज भी ज़रूरत है उन भावनाओं की
    जो दूसरो की भूख को समझते हैं

    बहुत सुन्दर... सार्थक रचना,
    प्रतिदिन कुछ नया सिखने को मिलता है.... !!

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  37. जिसे तुम राख मान रहे हो
    उसके अन्दर अब भी चिंगारी है
    संस्कारों के पदचिह्न आज भी हैं,
    मूल्यांकन की तदबीर आज भी है

    बेहतरीन ! इससे अधिक सुन्दर और सकारात्मक कुछ हो ही नहीं सकता ! रश्मि जी बहुत बहुत बधाई आपको इतनी सार्थक एवं अनुपम रचना के लिये ! अति सुन्दर !

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  38. सच्चाई और जीवन की असल हकीकत से रुबरू कराती बहुत सुंदर रचना।

    जिसे तुम राख मान रहे हो
    उसके अन्दर अब भी चिंगारी है
    संस्कारों के पदचिह्न आज भी हैं,
    मूल्यांकन की तदबीर आज भी है

    क्या कहने, अच्छा चिंतन

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  39. वाह! बहुत ही सुन्दर,सार्थक और प्रेरणादायक प्रस्तुति.

    अनुपम प्रस्तुति के लिए आभार,रश्मिजी.
    मेरे ब्लॉग पर आप आयीं ,इसके लिए भी बहुत बहुत आभार आपका.

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