18 जनवरी, 2012

मैं और मेरा ही मैं ...



" तुम थकती नहीं ?
तूफ़ान के मध्य भी कैसे खा लेती हो ?
कैसे हँस लेती हो ?
कैसे औरों के लिए सोच लेती हो ? "
..... पूछता था मेरा ही मैं मुझसे !

हंसकर कहती थी -
" मैं तो जिनी हूँ थकूंगी कैसे ...
और पापा डांटा करते थे खाना नहीं खाने पर
तो जब कभी नहीं खाने का विचार आता है
तो पापा का गुस्सा भी याद आता है
फिर सबसे बड़ी बात ये है कि
मुझे भूख लग जाती है
...
ना हंसकर मैं मान लूँ कि मैं हार गई
रोने लगूँ ?
रुलानेवालों को सुकून दूँ ?
...
औरों के लिए सोचना बड़ी बात कहाँ है
ये 'और' तो मेरे अपने ही हैं न ....

'मैं' को चैन नहीं मिलता
वह बाएँ दायें से उदाहरण उठाता -
" इसे देखो , देखो इसकी गंभीर मुद्रा
बड़े से बड़े जोक पर भी मातमी सूरत बनाये रखता है
थकान हो ना हो - दिखाता ज़रूर है
चेहरा ऐसा कि बगल में गीत बज उठे
" ग़म दिए मुस्तकिल कितना नाज़ुक है दिल ..."
और एक तुम हो !
अभावों के बीच भी रानी बनी बैठी रहती हो ..."

......बात दरअसल ये है मेरे मैं
कि कुछ लोग मानसिक रईस होते हैं
और इसी रईसी के संग आब होता है
मेरी हँसी से फूल झड़ते हैं
ऐसा मेरा ख्याल होता है
मेरा साई जादुई छड़ी सा मेरा विश्वास होता है
फिर इस जन्नत को अपने चेहरे से कैसे हटा दूँ !...

अपने मैं को एक विराम देती
तो कोलाहल का चिंतन शुरू होता
" कोई तो बात होगी
जो इसकी हँसी नहीं थमती ...
तूफानों के मध्य चेहरे पर रौनक !
झूठ बोलती है ....
समय पर नहाकर अच्छे कपड़े पहन लेती है
अरे छोटी सी घटना पर मन नहीं होता
और यह तो हर दिन ..... कोई तो बात ज़रूर होगी !"

कोलाहल के चिंतन की परतों में
क्षणांश को उलझता था मन
पर अपने लगाए बिरवों पर नज़र जाती
उनकी मासूम काया ...
बेपरवाह मैं सिंड्रेला के सपने देखने लगती
और लाल परी मेरे साथ हो जाती ....

एक नहीं दो नहीं ..... कई साल हवाई जहाज पर
ज़ूऊऊऊऊऊऊऊऊउन से गुजर गए ...
अचानक मेरे " मैं " ने मुझसे पूछा है -
" अरे ... क्या बात है
तुम इतनी उदास !
ये आँखों के नीचे आंसुओं के दाग !
ये थका थका चेहरा !
अभी तो तेरे उत्तरदायित्व बाकी हैं
फिर मस्तिष्क में यह रक्त प्रवाह ! -
कुछ हो गया तो ?
तुम्हें पता हैं न असलियत ?-
सब बिखर जायेगा .... "

" मैं " के इस सवाल से
कही गई बातों से
मन डरा है .... धो लिया है चेहरे को
अच्छे से बाल बाँधा है
दांये बाँए देखकर मुस्कुराई हूँ
अपनी कृत्रिमता मुझे नज़र आई है
खुद को आँखें दिखाते मैंने पूछा है -
" तूफानों के वेग को इतनी सहजता से तुमने लिया
अब जब सिर्फ पूरब तुम्हारे हिस्से आया है
तो ऐसी सूरत .... "

!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

35 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर..
    मेरा मैं खुश होता है औरों के लिए जो अपने है....
    .
    .
    .
    दी सच कहूँ तो भाव समझने में ज़रा वक्त लगा...
    :-)

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  2. खुद को आँखें दिखाते मैंने पूछा है -
    " तूफानों के वेग को इतनी सहजता से तुमने लिया
    अब जब सिर्फ पूरब तुम्हारे हिस्से आया है
    तो ऐसी सूरत .... "

    कमाल की प्रस्तुति है आपकी.

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  3. ......बात दरअसल ये है मेरे मैं
    कि कुछ लोग मानसिक रईस होते हैं

    'मैं' से किया गया वार्तालाप एक पूरी यात्रा का साक्षी सा बन पड़ा है!
    बेहद सुंदर रचना!

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  4. साधु-साधु
    अतिसुन्दर
    मर्मस्पर्सी

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  5. सबको सहेज कर और सब कुछ समेट कर इतने लोगों की अन्नपूर्णा बनना बड़ा ही कठिन कार्य है।

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  6. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति, आभार।

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  7. खुद को आँखें दिखाते मैंने पूछा है -
    " तूफानों के वेग को इतनी सहजता से तुमने लिया
    अब जब सिर्फ पूरब तुम्हारे हिस्से आया है
    तो ऐसी सूरत .... "
    कितनी सार्थकता है इन पंक्तियों में ...ये खुद से खुद की बातें ...

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  8. bahut gambheer soch ko darsha rahi hai yeh prastuti.kabhi kabhi khud se main ki baate karna achcha lagta hai.apne antar me bhi aseem sansaar hai bas jhaank kar dekhne ki deri hai.

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  9. स्वयं से संवाद .. पूरी निष्ठां से जिया जीवन ... रुलाने वाले को रो कर क्यों कर खुशी दी जाए .. बस मुस्कुराते रहिये .. बहुत खूबसूरत भावों को समेट कर जीने का अंदाज़ सिखाती रचना

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  10. " तूफानों के वेग को इतनी सहजता से तुमने लिया
    अब जब सिर्फ पूरब तुम्हारे हिस्से आया है
    तो ऐसी सूरत .... "

    पढ़ रही हूँ ...समझ रही हूँ ..सोच रही हूँ .....
    गहन ...मर्मस्पर्शी ...
    बहुत सुंदर रचना ....!!

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  11. जीवन की सच्चाइयों को उकेरती , प्रवाहमय तरीके से बयान करती कविता है

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  12. यही विड्म्बना है हम अपने "मै" से भी आँख चुराते हैं ।

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  13. जिनी के जज्बे को दिल से सलाम..

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  14. गहरी सोच से उपजी इस रचना में
    मैं और मैं के बिच हुए सवाल जबाब को समझने
    में थोडा वक्त लगा !
    आभार !

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  15. कल 20/01/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  16. आप अपने आप से कितना बतियाती हैं। और विलक्षण बात यह है कि हर बार कुछ नया निकलकर आता है।

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  17. बस पढ़ रही हूँ और सोच रही हूँ.

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  18. अपने मैं से बच निकलने की जद्दोजहद का सुन्दर चित्रण

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  19. एक बार फिर शब्दों का जादू चला दिया आपने :-) राजेश कुमारी जी की बात से पूर्णतः सहमत हूँ

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  20. सच सिर्फ पढ़ रही रही हूँ.... और सोच रही हूँ.....की क्या कुछ बचा है कहने के लिए? बार-बार पढ़ती हूँ और हर बार कुछ अलग ही पाती हूँ इन पंक्तियों में ....

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  21. गहरी अभिव्‍यक्ति।
    सुंदर रचना।

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  22. रश्मि जी बहुत ताजगी लिए सुंदर कविता |

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  23. गहन जीवन दर्शन को उकेरती अद्भुत रचना है रश्मि जी ! हर पंक्ति सोचने के लिये बाध्य करती है और अपने अंदर का 'मैं' हज़ारों हज़ार सवालों के साथ सम्मुख आ खड़ा होता है ! बहुत सुन्दर ! इस अनुपम प्रस्तुति के लिये अनेक शुभकामनायें !

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  24. " तूफानों के वेग को इतनी सहजता से तुमने लिया
    अब जब सिर्फ पूरब तुम्हारे हिस्से आया है
    तो ऐसी सूरत .... "

    खुद से खुद को कही गई बात
    निःसन्देह लाजवाब हे!
    कितनी सरलता से व्यक्त कर लेती हैं गहरी बातों को

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  25. अद्भुत और बड़े ही गहन भाव ! सचमुच आपके भीतर शब्दों का एक अकूत भंडार है...आभार!

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  26. ना हंसकर मैं मान लूँ कि मैं हार गई
    रोने लगूँ ?
    रुलानेवालों को सुकून दूँ ?

    यह सुकून देना आसान नहीं है.....
    किसी के लबों को मुस्कान देने के लिए क्या नहीं करना पड़ता.....

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  27. कोलाहल के चिंतन की परतों में
    क्षणांश को उलझता था मन
    पर अपने लगाए बिरवों पर नज़र जाती
    उनकी मासूम काया ...
    बेपरवाह मैं सिंड्रेला के सपने देखने लगती
    और लाल परी मेरे साथ हो जाती ....wah......ab kahoon to kya kahoon.....

    जवाब देंहटाएं
  28. अभी तो तेरे उत्तरदायित्व बाकी हैं
    फिर मस्तिष्क में यह रक्त प्रवाह ! -
    कुछ हो गया तो ?
    तुम्हें पता हैं न असलियत ?-
    सब बिखर जायेगा .... "

    मैं सब जानता है उससे कुछ छिपा नहीं... काफी ध्यान से कई बार पढ़ा फिर पढ़ा... गहन अभिव्यक्ति के लिए आपका आभार

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  29. अभी बहुत कुछ करना बाकी है ...
    शुभकामनायें आपको !

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  30. मैं से मैं की मुलाकात ...बेहद खूबसूरत प्रस्तुति

    मन की कशमकश ...उम्दा
    सलाम आपकी लेखनी को दीदी

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  31. सोंचने को मजबूर करती रचना ...
    मैं से साक्षात्कार अंतर्मन के साथ गुफ्तगू बहुत गहरे ले गयी.

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  32. बात दरअसल ये है मेरे, 'मैं'
    कि कुछ लोग मानसिक रईस होते हैं ...
    वाह दी! अनुपम जवाब...
    अपने लगाए बिरवों पर नज़र जाती
    उनकी मासूम काया ...
    बेपरवाह मैं सिंड्रेला के सपने देखने लगती
    कहाँ कहाँ ले जाता है आपका चिंतन... वाह!
    अभी तो तेरे उत्तरदायित्व बाकी हैं...... यही बोध तो है जो मन की सारी संपत्ति लूट कर वहाँ थकावट के बीज बो देता है, और अपनी मुस्कराहट भी कृत्रिम, अनचीन्हा लगने लगता है... वाह दी! पूरा जीवन चक्र गुम्फित है रचना में... बहुत उम्दा...
    सादर.

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