प्रेम तो ताकत है
जीवन की पूर्णता है
आंधी के मध्य भी जलनेवाला अद्भुत दीया !
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मैं तो जीती आई हूँ बरसों
- एक काल्पनिक प्रेम में
जिस तरह पत्थर,मिटटी,कूची से
भगवान् की प्रतिमा बनाते हैं
उसी तरह मैंने एक चेहरा बनाया अदृश्य में
कोई नाम नहीं दिया
और प्रेम की अमीरी में
रास्तों को कौन कहे
खाइयों को पार कर लिया
पर ..... हादसों को आत्मसात करता मन
अचानक प्रेम से उदासीन हो उठा है -
प्रेम !!!
उन लड़कियों ने भी तो प्रेम चाहा होगा न जीवन में !
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जो युवा बेमानी कानून के आगे दम तोड़ देते हैं
उन्होंने भी प्रेम चाहा होगा न !
पर उनके नाम
उनके परिवार के नाम
दहशत और आंसू लिख दिए गए
व्यवस्था और परिवर्तन के नाम पर !
अचानक किसी मानसिक बीमारी की तरह
प्रेम शब्द से वितृष्णा हो गई है
यूँ कहें -
प्रेम की भाषा ही भयानक हो गई है !
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चालाकी के समर्पण ने
विकृत ठहाकों के अंधे कुएं में
कई कल्पनाशील चेहरों को ज़िंदा दफ़न कर दिया है
मैं हर दिन उस कुएं में झांकती हूँ
दबी घुटी चीखें मेरे होठों पर थरथराती है
आँखों से बिना किसी सूचना के
आंसू टपकते हैं
मुझे उस अंधे कुएं से अलग कुछ नज़र नहीं आता
पर ........ मैं असहाय हूँ
कुछ नहीं कर पाती,.....
कुछ कर भी नहीं सकती -
सिवाए महसूस करने के ...
और महसूस करने से
न कोई जिंदा होता है
न हादसे रुकते हैं
विकृतियाँ सरहद के पार ही नहीं
हर गली मोहल्ले शहर में घूमती हैं
- - - - - मैं ही नहीं
जाने कितने चेहरे मौत की तरह खामोश हो चले हैं ...
गाहे-बगाहे मेरी तरह
'मैं हूँ','मैं हूँ' कहते हैं
और भरभराकर एक कोने में सिमट जाते हैं !
विषैली हवाओं के आगे
सामर्थ्य की साँसें मिट रही हैं
कौन अगले कदम पर खो जायेगा
............. आहट भी नहीं है ..............