30 जनवरी, 2013

आतंक के निकट



प्रेम तो ताकत है 
जीवन की पूर्णता है 
आंधी के मध्य भी जलनेवाला अद्भुत दीया !
..........
मैं तो जीती आई  हूँ बरसों 
- एक काल्पनिक प्रेम में 
जिस तरह पत्थर,मिटटी,कूची से 
भगवान् की प्रतिमा बनाते हैं 
उसी तरह मैंने एक चेहरा बनाया अदृश्य में 
कोई नाम नहीं दिया 
और प्रेम की अमीरी में 
रास्तों को कौन कहे 
खाइयों को पार कर लिया 
पर ..... हादसों को आत्मसात करता मन 
अचानक प्रेम से उदासीन हो उठा है -
प्रेम !!!
उन लड़कियों ने भी तो प्रेम चाहा होगा न जीवन में !
.........
जो युवा बेमानी कानून के आगे दम तोड़ देते हैं 
उन्होंने भी प्रेम चाहा होगा न !
पर उनके नाम 
उनके परिवार के नाम 
दहशत और आंसू लिख दिए गए 
व्यवस्था और परिवर्तन के नाम पर !
अचानक किसी मानसिक बीमारी की तरह 
प्रेम शब्द से वितृष्णा हो गई है 
यूँ कहें -
प्रेम की भाषा ही भयानक हो गई है !
..........
चालाकी के समर्पण ने 
विकृत ठहाकों के अंधे कुएं में 
कई कल्पनाशील चेहरों को ज़िंदा दफ़न कर दिया है 
मैं हर दिन उस कुएं में झांकती हूँ 
दबी घुटी चीखें मेरे होठों पर थरथराती है 
आँखों से बिना किसी सूचना के 
आंसू टपकते हैं 
मुझे उस अंधे कुएं से अलग कुछ नज़र नहीं आता 
पर ........ मैं असहाय हूँ 
कुछ नहीं कर पाती,..... 
कुछ कर भी नहीं सकती -
सिवाए महसूस करने के ...
और महसूस करने से 
न कोई जिंदा होता है 
न हादसे रुकते हैं 
विकृतियाँ सरहद के पार ही नहीं 
हर गली मोहल्ले शहर में घूमती हैं 
- - - - - मैं ही नहीं 
जाने कितने चेहरे मौत की तरह खामोश हो चले हैं ...
गाहे-बगाहे मेरी तरह 
'मैं हूँ','मैं हूँ' कहते हैं 
और भरभराकर एक कोने में सिमट जाते हैं !
विषैली हवाओं के आगे 
सामर्थ्य की साँसें मिट रही हैं 
कौन अगले कदम पर खो जायेगा 
............. आहट भी नहीं है ..............

40 टिप्‍पणियां:

  1. एक सिरहन सी महसूस की कविता को पढ़ कर...

    सादर
    अनु

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  2. दिल को दहला देने वाली दमदार रचना रश्मिप्रभा जी ! लेकिन आज ऐसी हताशा आपकी लेखनी से कैसे नि:सृत हो रही है ! आपकी लेखनी तो हमेशा आग और ओज की प्रणेता रही है ! आज यह निराशा का भाव कैसा ? समझ नहीं पा रही हूँ !

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  3. निराश नहीं - लोगों की .... अच्छे लोगों की सोच के आगे कभी कभी ऐसी स्थिति होती है

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  4. गाहे-बगाहे मेरी तरह
    'मैं हूँ','मैं हूँ' कहते हैं
    और भरभराकर एक कोने में सिमट जाते हैं !
    विषैली हवाओं के आगे
    सामर्थ्य की साँसें मिट रही हैं
    कौन अगले कदम पर खो जायेगा
    ............. आहट भी नहीं है ..............
    सब इसी तरह व्याकुल हैं ..........

    जवाब देंहटाएं
  5. विषैली हवाओं के आगे
    सामर्थ्य की साँसें मिट रही हैं
    कौन अगले कदम पर खो जायेगा
    ............. आहट भी नहीं है

    इसी आतंक के घेरे में सभी जी रहे हैं...
    कब क्या हो किसको पता !!!!

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  6. विषैली हवाओं के आगे
    सामर्थ्य की साँसें मिट रही हैं
    कौन अगले कदम पर खो जायेगा,,,,

    सच्चाई का अहसास कराती मन को व्याकुल करती
    रचना,,,

    recent post: कैसा,यह गणतंत्र हमारा,

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  7. विषैली हवाओं के आगे
    सामर्थ्य की साँसें मिट रही हैं
    कौन अगले कदम पर खो जायेगा
    ............. आहट भी नहीं है .......

    ....एक एक पंक्ति अंतस को उद्वेलित करती है....बहुत मर्मस्पर्शी रचना

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  8. बेहद सीधे मन को झकझोरने वाली कविता है. कवी मन एक आर्तनाद करता है ..कलम उठता है ..लिखता है और युग बदलने की कवायत में जुट जाता है.. सफलता मिलना न मिलना ..कोई मायने नहीं रखता .. मायने रखता है .. सोच रखना .. रश्मिजी बधाई और शुभकामनाएं भी .

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  9. पर ........ मैं असहाय हूँ
    कुछ नहीं कर पाती,.....
    कुछ कर भी नहीं सकती -
    सिवाए महसूस करने के .
    पर ........ मैं असहाय हूँ
    कुछ नहीं कर पाती,.....
    कुछ कर भी नहीं सकती -
    सिवाए महसूस करने के .

    महसूस नहीं करते लोग इसलिए तो हादसे होते है
    महसूस करने वाला मन ही बहुत कुछ कर सकता है .....
    बचा सकता है एक घर, एक गाँव,एक शहर एक राष्ट्र एक देश ...एक ज्योति जलती है तो उसकी तपिश से असंख्य ज्योतिया जल उठती है ....
    जलना प्रकाश देना ही
    ज्योति का धर्म है !
    फिर असहायता कैसी ?

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  10. विषैली हवाओं के आगे
    सामर्थ्य की साँसें मिट रही हैं
    कौन अगले कदम पर खो जायेगा,,,,
    एक घटना जिसको हम भूल नहीं पा रहे हैं। बार बार सोचने को मजबूर करती हुई वो बात।

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  11. आपकी पोस्ट 31 - 01- 2013 के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
    कृपया पधारें ।

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  12. न हादसे रुकते हैं
    विकृतियाँ सरहद के पार ही नहीं
    हर गली मोहल्ले शहर में घूमती हैं

    कितनी सच्चाई से बयान कर दिया है.... शब्द शब्द महसूस किया ,

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  13. विकृतियाँ सरहद के पार ही नहीं
    हर गली मोहल्ले शहर में घूमती हैं ...बहुत सही कहा ...इनको कैसे रोकें ..?

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  14. इन दबे पाँव आनेवाले खतरों से कब तक दहलते रहेंगे हम...क्यूँ मुट्ठीभर लोगों ने इस पुरे समाज का जीना हराम कर रखा है ...क्यों नहीं हम उन्हें पहचान पाते ...क्यों नहीं उनका ज़मीर जगा पाते ....क्यों नहीं उन्हें इंसान बना पाते ...क्यों नहीं ...क्यों नहीं....

    जवाब देंहटाएं
  15. इन दबे पाँव आनेवाले खतरों से कब तक दहलते रहेंगे हम...क्यूँ मुट्ठीभर लोगों ने इस पुरे समाज का जीना हराम कर रखा है ...क्यों नहीं हम उन्हें पहचान पाते ...क्यों नहीं उनका ज़मीर जगा पाते ....क्यों नहीं उन्हें इंसान बना पाते ...क्यों नहीं ...क्यों नहीं....

    जवाब देंहटाएं
  16. बहुत सही कहा आपने ..
    विकृत मानसिकता दूर होनी चाहिए
    मेरा अपना विचार है कि 'उचित शिक्षा' से हमारा आने वाला समाज इन विकृतियों से मुक्त हो सकेगा ..
    सादर आभार !

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  17. इस कविता को बस महसूस किया जा सकता है.. मैं तो कुछ कहने की हालत में नहीं!!

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  18. विकृतियाँ सरहद के पार ही नहीं
    हर गली मोहल्ले शहर में घूमती हैं....!

    Sach hai..bahut hi sundar kriti ek baar fir aapki... Badhai..

    Mafi chahte hain.. Bahut dinon ke baad punah sakriya hun blog par..

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  19. सिवाए महसूस करने के ...
    और महसूस करने से
    न कोई जिंदा होता है
    न हादसे रुकते हैं ...
    सच है... लेकिन कोई तो राह होगी, जो मंजिल तक जाएगी

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  20. प्रेम तो ताकत है
    जीवन की पूर्णता है
    आंधी के मध्य भी जलनेवाला अद्भुत दीया !

    एक सिरहन सी महसूस की कविता को पढ़ कर...

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  21. मन को उद्वेलित करती कविता...... बहुत उम्दा

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  22. वृहद विश्व यह,
    नहीं अकेले,
    जीवन संभव,
    पर अपनों की,
    खोज निरन्तर,
    प्रेम प्रतीक्षित।

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  23. विषैली हवाओं के आगे
    सामर्थ्य की साँसें मिट रही हैं
    कौन अगले कदम पर खो जायेगा
    ............. आहट भी नहीं है ..............

    आज के सत्य को उदघाटित करती रचना सोचने को मजबूर करती है।

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  24. सचमुच लगने लगा है कि प्रेम की भाषा भयानक हो गई है. मन को झकझोर देने वाली रचना, शुभकामनाएँ.

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  25. "प्रेम की भाषा ही भयानक हो गई है !"

    ---प्रेम की भाषा कभी भयानक नहीं हो सकती ...अन्यथा वह प्रेम की भाषा ही नहीं है... प्रेम तो न जाने कितनी भाषाओं को सौन्दर्य-बोध में परिवर्तित कर देता है...
    ---- हाँ प्रेम का पंथ और कठिन हो सकता है जो सदा से ही है...
    "प्रेम को पंथ कराल महा, तरवारि की धारि पे धावनो है |"

    ---- अस्पष्ट से निराशावादी स्वर हैं..

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  26. विषैली हवाओं के आगे
    सामर्थ्य की साँसें मिट रही हैं
    कौन अगले कदम पर खो जायेगा
    .... आहट भी नहीं है
    अंतस को झकझोरती,,सोचने पर विवस
    करती रचना...

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  27. प्रेम तो ताकत है
    जीवन की पूर्णता है
    आंधी के मध्य भी जलनेवाला अद्भुत दीया !
    जहाँ प्रेम का यह रूप है .... वहीं
    प्रेम शब्द से वितृष्णा हो गई है
    यूँ कहें -
    प्रेम की भाषा ही भयानक हो गई है !
    ..........
    ये पंक्तियां झकझोर देती हैं ... अंतस को
    नि:शब्‍द हूँ आपके इस सशक्‍त लेखन पर

    सादर

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  28. लैला-मजनू और हीर-राँझा भी तो इसी समाज के द्वारा सताए गए थे..प्रेम को न जानने वाले लोग ही इसके दुश्मन बन जाते हैं..

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  29. आवाजें अब भर्राने लगीं हैं .... रश्मि जी ! बड़े-बड़े अंधे कुओं की क्या कहें ... खुद के अन्दर भी एक सन्नाटा सा छा गया है जैसे .... और अपनी ही आवाज़ गूंजती सुनाई देती है .... :(
    ~सादर!!!

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  30. दु:स्वप्न अब नियति बन गयी है..

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  31. और महसूस करने से
    न कोई जिंदा होता है
    न हादसे रुकते हैं
    विकृतियाँ सरहद के पार ही नहीं
    हर गली मोहल्ले शहर में घूमती हैं
    - - - - सच कहा आपने बहुत दूर जाने की जरुरत ही नहीं ...फिर भी लोग बहुत दूर की बात करते नहीं अघाते ..
    ..अंतस्थल की झिंझोड़ती रचना ...
    ..

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  32. कौन अगले कदम पर खो जायेगा
    ............. आहट भी नहीं है .......

    सच कहा ऐसे हादसे कब कहाँ किसके साथ घट जाए क्या पता ...

    बहुत ही सशक्त कविता .....

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  33. प्रेम तो ताकत है
    जीवन की पूर्णता है
    आंधी के मध्य भी जलनेवाला अद्भुत दीया !

    अनमोल शब्द हैं ये.

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  34. आज मेरे अंदर भी कुछ ऐसे भाव उमड़ रहे हैं सुबह से....आपको पढ़ा तो अच्‍छा लगा। क्‍यों प्रेम के नाम पर ली जाती है कुर्बानि‍यां.... बहुत सवाल हैं....मैं आप सी ही द्रवि‍त

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  35. 'मैं हूँ','मैं हूँ' कहते हैं
    और भरभराकर एक कोने में सिमट जाते हैं !
    विषैली हवाओं के आगे
    सामर्थ्य की साँसें मिट रही हैं
    कौन अगले कदम पर खो जायेगा
    ............. आहट भी नहीं है ..............

    nishabd karte shabd .....
    gahan rachna ...di.

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  36. औरत होने के नाते ..बहुत से अहसासों से गुज़रना हुआ ..

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  37. सत्य या मजबूरी ... पास सच तो यही है जो आपने लिख दिया है ...

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बुनियाद

 जो रिश्ता रिश्तों के नाम पर एक धारदार चाकू रहा, उसे समाज के नाम पर रिश्तों का हवाला देकर खून बहाने का हक दिया जाए  अपशब्दों को भुलाकर क्षमा...