23 अप्रैल, 2013

या फिर लिखते रहो यूँ ही कुछ कुछ -



धूल से सने पाँव 
एक दूसरे के बाल खींचते हाथ 
तमतमाए चेहरे 
कान उमेठे जाने पर 
अपमानित चेहरा 
और प्रण लेता मन .... अगली बार देख लेंगे ....
भाई-बहन के बीच का यह रिश्ता 
कुछ खट्टा कुछ मीठा 
कितना जबरदस्त !....
शैतानियों के जंगल से 
अगले कारनामे की तैयारी कितने मन से होती थी !
......
फिर स्कूल,कॉलेज,किसी की नौकरी,किसी की शादी 
..... कुछ उदासी,कुछ अकेलापन 
तो रहने लगा छुट्टियों का इंतज़ार 
छोटी छोटी लड़ाइयाँ 
अकेले होने का डर 
फिर भी शिकायतों की पिटारी .... अगली छुट्टी के लिए !

फिर अपना घर,अपनी परेशानी 
आसान नहीं रह जाती ज़िन्दगी उतनी 
जितनी माँ के आँचल में होती है 
एक नहीं कई तरफ दृष्टि घुमानी होती है 
कभी घर,कभी ऑफिस,कभी थकान,कभी बच्चों का स्कूल ....
बचपन से बड़े होने के लम्बे धागे में 
जाने कितने लाल,हरे,नीले,पीले कारण गूंथते जाते हैं 
.........
समय हवाई जहाज बन उड़ता है 
बिना टिकट हमें उसके साथ उड़ना होता है 
न बारिश,न धुंध,.... कोई समस्या समय के आगे नहीं 
उसकी मर्ज़ी -
वह उड़ाता जाए 
और अचानक उतार दे 
उसके बाद ?
डरने से,सिहरने से भी क्या 
यादों के बीच मुस्कुराते हुए 
बहुत कुछ याद कर आंसू बहाते हुए 
हम कितने बेबस होते हैं ....
यह भी ज़रूरी है - वह भी ज़रूरी है के जाल में फंसकर 
हम दूर हो जाते हैं 
छुट्टियों के इंतज़ार के मायने भी खो जाते हैं 
रह जाता है एक शून्य 
जिसमें रिवाइंड,प्ले चलता है 
मन को उसमें लगाना पड़ता है ............

या फिर लिखते रहो यूँ ही कुछ कुछ - 


16 अप्रैल, 2013

यह भी एक रहस्यात्मक तथ्य है !



परिक्रमा तो मैंने बहुत सारी की
और जाना -
,..... हर रिश्तों की अपनी अपनी अग्नि होती है
अपने अपने मंत्र ....
पूरी परिक्रमा तो अभी शेष ही है
जो शेष रह ही जाती है
क्योंकि शेष में ही आगामी विस्तार है !

इस मध्यरूपेण यात्रा में इतना जाना
कि मंत्र मन के खामोश स्वर से निःसृत होते हैं
और वही निभते और निभाये जाते हैं !
हम सब जानते हैं
जीवन के प्रत्येक पृष्ठ पर
कथ्य और कृत्य में फर्क होता है
और इसे जानना समझना
सहज और सरल नहीं ...
सम्भव भी नहीं
..... !!!
इस परिक्रमा के पहले दौर में ही
शायद नहीं चाहते हुए भी
मैंने संस्कारों को अपना प्रतिनिधि बनाया ...
विरासत में कुछ सोच ही मिले थे घर से
जिनके विरोध में हम आपस में तर्क करते गए
पर - किया वही
जो जड़ से मिला ...
जड़ें गहरी थीं
कटकर भी ख्याल पनपते गए
पौधे से वृक्ष का
घने वृक्ष का सिलसिला चलता रहा ...
दुखद कहें
या हास्यास्पद
या अद्भुत
वृक्ष की छाँव में बहेलिया भी बैठा जाल लेकर
घोंसले में पक्षी भयभीत हुए
पर वृक्ष की परम्परागत शाखाओं ने
उन्हें भय का स्वर्णिम उद्देश्य सिखाया
कहा -
बहेलिया नहीं बदलेगा - तय है
तो हम क्यूँ बदल जाएँ
जीवन की बाजी यूँ ही चलती है
जीत हार में भी होती है
दिखाई बाद में देती है"
....
परिक्रमा के रास्ते सीधे नहीं थे
जितनी आसानी से कोई कहानी कही जाती है
उतने आसान न रास्ते होते हैं
न मन की स्थिति
विरोध के दावानल में घिरा मन
मस्तिष्क से जूझता रहता है
जूझते मन की  ऐसी दशा से
हर युग की मुलाकात हुई - स्तम्भ की तरह
हर पलड़े पर संस्कार भारी पड़ा
फिर भी ...
असत्य अंगारे बिछाता गया ...
पाँव के छाले अपने नहीं होते
तो सब प्रश्नपत्र लेकर बैठ जाते हैं
अपनों के निर्मित कटघरे में
मोह के कई बंधन टूट जाते हैं
टूटे धागे
कांच की तरह चुभते हैं
अदृश्य दर्द के निशान
कई कहानियों का समापन होते हैं !
....
अंत एक दर्शन है
जीवन की साँसों का
रिश्तों का
विश्वास का, प्यार का ...........
एक अद्भुत रहस्य अंत से आरम्भ होता है
अद्वैत के प्रस्फुटित मंत्रोचार में
जो सूर्योदय की प्रत्येक किरण की परिक्रमा में है
और ख़त्म नहीं होती
....
 परिक्रमा अभी बाकी है .... कुछ रहस्य,कुछ तथ्य - अभी बाकी हैं
कब तक ???????
यह भी एक रहस्यात्मक तथ्य है !

07 अप्रैल, 2013

सच कुछ भी नहीं




जब ज़िन्दगी ठहर जाती है 
नदी किनारों से परे 
बेवजह कलकल करती है 
तो न सन्नाटे बोलते हैं 
न शोर ही सुनाई देता है ...
उपदेशकों की भीड़ 
और तन्हा मन -
कोई चेहरा भी दिखाई नहीं देता .
चीख बुझ गई है 
आग रुक गई है 
किसी का कोई इंतज़ार नहीं !
मोह की बेड़ियाँ तो अब स्वतः खुलने लगी हैं 
कभी पूछ बैठूँ 
कि कौन हो तुम ....
तो हँसना मत 
अब हँसी भी मुझे दिखाई सुनाई नहीं देती !
आवारा सड़कों से दूर 
सभ्यता से भरे कमरे में 
मैं ढूंढती रही वह लफ्ज़ 
जो मुझे सुकून दे सके 
अब तो आईने ने भी मुझे दिखाना बंद कर दिया है !
क्यूँ घूर रहे मुझे ?
विश्वास नहीं होता ?
चलो छोड़ो -
इस विश्वास,अविश्वास से भी कुछ नहीं होता 
सच कुछ भी नहीं  
शायद आत्मा की अमरता भी छलावा है 
सिर्फ छलावा !!!

एहसास

 मैंने महसूस किया है  कि तुम देख रहे हो मुझे  अपनी जगह से । खासकर तब, जब मेरे मन के कुरुक्षेत्र में  मेरा ही मन कौरव और पांडव बनकर खड़ा रहता...