'अपशब्द' दिलोदिमाग में नहीं उभरते
ऐसी बात नहीं
पर कंठ से नहीं निकलते
व्यक्तित्व के गले में अवरुद्ध हो जाते हैं !
'जैसे को तैसा' ना हो
तो मन की कायरता दुत्कारती है
पर वक़्त जब आता है
तब .... एक ही प्रश्न कौंधता है
'इससे क्या मिल जाएगा !'
सही-गलत के बीच
मन पिसता जाता है
अपने ही सवाल हथौड़े सी चोट करते हैं -
'क्या यह गलत को
अन्याय को बढ़ावा देना नहीं ?'
मन का एक कोना हकलाते हुए कहता है
'क्या फर्क रह जाएगा फिर उसमें और मुझमें !'
यह आदर्श है ?
संस्कार है ?
या है पलायन ?
रही बात रिश्तों को निभाने की
तो एकतरफा रिश्ते होते कहाँ हैं !
इसी उधेड़बुन में उड़ जाती हैं रातों की नींदें
'हैल्युसिनेशन' होता है
हर जगह 'मैं' कटघरे में खड़ा दिखता है !
मन न्यायाधीश
मन गवाह
आरोप-प्रत्यारोप - आजीवन !
सच भी बोला है,
झूठ भी …
सच कहूँ तो पलड़ा बराबर है
तो,
मैं भी तो पूर्णतया सही नहीं
बस अपशब्द कहने की गुस्ताखी कभी नहीं की !
क्या सच में कभी नहीं ???
अपशब्द मन में तो घुमड़ते ही होंगे , जुबान बयां करने से रोक भले ही दे !
जवाब देंहटाएंकभी कभी भड़ास निकाल लेने में हर्जा क्या है , कहते हैं ज्यादा दिन तक मन में दबा रहे गुस्सा तो बीमारियाँ बढती है !
:)
हटाएंवाकई घुमड़ते तो हैं. और किस्मत वाले हैं वो लोग जो जुबान पर भी ला पाते हैं और निकाल लेते हैं भड़ास.
जवाब देंहटाएंपर नहीं होता हमसे, बहुत कोशिशों के बाद भी, क्या करें.
शब्द एक ही होता है
जवाब देंहटाएंज्यादातर कपड़े
पहने हुऐ ही होता है
बहुत कम होते हैं जो
शब्दों के कपड़े
उतार पाते हैं
बहुत हिम्मत
चाहिये होती है
नहीं कर पाते हैं
शब्द भी होते हैं
आदमी की तरह
उतने नहीं कुछ
कोशिश करके
ढक ही ले जाते हैं
आदमी होने से
बच ही जाते हैं :)
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज बृहस्पतिवार (13-03-2014) को "फिर से होली आई" चर्चा- 1550 "अद्यतन लिंक" पर भी है!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बत्तीस कठोर दाँतों के बीच जीभ अपने कोमल स्वभाव के कारण ही सलामत रहती है. कृष्ण ने भी सौ अपशब्दों को क्षमा करने का वचन दिया था. चुप रह जाना संस्कार तक उचित है, किंतु एक सीमा के बाहर वह कायरता कहलाने लगता है. दिनकर जी ने कहा भी है कि
जवाब देंहटाएंक्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो!!
प्रत्युत्तर में अपशब्द कहना न कहना यह तो बुद्धू से लेकर बुद्ध तक निर्भर है !
जवाब देंहटाएंमान लीजिये न हम बुद्धू है न बुद्ध है तो बीच का रास्ता अपनाया जा सकता है
इस दिशा में सलिल जी की टिप्पणी गौर करने लायक है !
अच्छा विषय चुना है !
'क्या फर्क रह जाएगा फिर उसमें और मुझमें !'
जवाब देंहटाएंएकदम सही है … अच्छे और बुरे में फर्क तो होना ही चाहिए…. मैं आपकी इस सोच से सोलह आने सहमत हूँ, कुछ कुछ इसी तर्ज़ पर ये पंक्तियाँ आपसे शेयर करना चाहूंगी … हर दिन सोचा इक पत्थर लूं और ईंट का उत्तर दे ही दूं, पर फिर सोचाः इतना नीचे मैं उतरूं भी तो किसके लिए …
अहिंसा मन-कर्म-वचन से होती है...बोलने से बात बढती ही है...करिये वही जो हो सही...सुंदर रचना...
जवाब देंहटाएंइसी अंतर्द्वंद से अपने लिए ही राह खुलती है जिसपर किसी अन्य का मील का पत्थर नहीं लगता है .
जवाब देंहटाएंमाँ की सीख थी लकड़ी छिलने से चिकना होता है
जवाब देंहटाएंबात छिलने से रिश्ते रुखड़े होते हैं
क्या फर्क रह जाएगा
बहुत सालो तक इसी आधार पर चलती रही ज़िंदगी
ना हार मानने का जज्बा भी था
फिर आपका ही लिखा पढ़ी थी यही
भेड़िया -आँख तरेरने वाली बात
तब से अब तक बहुत कुछ बदल ली
शब्द कोरे शब्द नहीं होते
जो कहे नहीं पर भीतर घुमड़े तो मानो कह ही दिए...
जवाब देंहटाएंमन का एक कोना हकलाते हुए कहता है
जवाब देंहटाएं'क्या फर्क रह जाएगा फिर उसमें और मुझमें !'
यह आदर्श है ?
संस्कार है ?.....हाँ यह सिर्फ और सिर्फ संस्कार हैं ...सबकी करनी सबके साथ ...बहोत बार मन होता है ....पर वह सच्चाई रोक लेती है ....हम भी फिर उस जैसे ही हुए ...क्या कभी होना चाहेंगे ...नहीं न ....!!!
कभी कभी अपशब्द भी निकल ही जाते हैं. क्या कीजिए, मन है न.
जवाब देंहटाएंमन का एक कोना हकलाते हुए कहता है
जवाब देंहटाएं'क्या फर्क रह जाएगा फिर उसमें और मुझमें !'
यह आदर्श है ?
संस्कार है ?.
इन संस्कारों की विरासत संभाले रखना भी तो आवश्यक है .....
अपशब्द भावों की अजीर्णता है, सहने के लिये दावानल सी जठराग्नि चाहिये।
जवाब देंहटाएंkhoobsurti se ukera sacchai ko ...rashmi jee aapne ...mere blog par aapka intjaar hai ...
जवाब देंहटाएंमन में तो बहुत कुछ आता है पर विवेक उसे रोक देता है बहार आने से ... पर कभी कभी मन को रोकना उचित नहीं होता ... बह जाने देना चाहिए जो मन में है ...
जवाब देंहटाएंहोली कि हार्दिक बधाई ...
'क्या फर्क रह जाएगा फिर उसमें और मुझमें !'
जवाब देंहटाएंये सोच कर मैं कभी युधिष्ठिर बनी ,अपना सम्मान गवायाँ
संस्कारों के नाम पर ,मौन तान कर,
कितना आत्म सम्मान नीचा हुआ मेरा
और वो मुझे अपराधी ठहरा कर मुझे निचे गिराता चला गया
मैं उसे सम्मान देती रही
और संस्कारहीन को ये पता भी न चलने दिया
कि वो गलत है
वो मेरे संस्कार को अपनी जीत और मेरी मर्यादा को विवशता की चादर में कसता गया
मेरे प्राण पीड़ा सहते रहे और फिर मैंने अपने आपको कोसकर अपशब्द कहे
तब मेरे संस्कार कहाँ गये
जब हम दोषी को संस्कारों के नाम पर निरंकुश बनाने में मदद करते हैं
और निर्दोष को अपशब्द कह देते है ?
क्या फर्क रह जाता है फिर सही और गलत के बीच ,संस्कार और अपशब्द के बीच ???