30 अगस्त, 2014

चैतन्य




मेरा सत्य (असत्य सा निर्जीव)
मेरे अस्तित्व की चेतना बन
वृक्ष की घनी पत्तियों में
सूर्योदय में
गोधुली में
पंछियों के निनाद में
गंगा की अभिलाषा में
शिव जटा में
सरस्वती की वीणा में
पार्वती के तप में
अबोध बच्चे की मुस्कान में
शांत नीरव में
अदृश्य हवाओं में
गर्भ से ही मुक्त कन्याओं में
अशक्त शरीर में
सरगम के सुर में
साईं के निर्लिप्त सहायक भाव में
शहीदों की मजारों पर
कोलाहल की शून्यता में
अंकुरण की प्रत्याशा में
बंजर जमीन पर पड़े बीज में
कृष्ण के मुख के अन्दर
दृश्यमान ब्रह्माण्ड में
राधा के प्रेम में
यशोधरा के दायित्व में
यशोदा के मातृत्व में
अर्जुन के तीर में
कर्ण के दान में
भीष्म की शर शय्या में
एकलव्य की एकाग्रता में
विवेकानंद के शून्य में
..............
निरंतर अहर्निश ज्वलित
चलायमान है
जैसे -  ॐ

19 टिप्‍पणियां:

  1. बिल्कुल वो ही है .... ये गतिशीलता भी उसी की दी हुई है

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  2. जीवन के प्रथम स्वास से अन्तिम स्वांस तक यह चलायमान है परन्तु जन्म से पहले यह स्थिर था या गतिशील ... यही तो जानना है |
    हमारे रक्षक हैं पेड़ !
    धर्म संसद में हंगामा

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  3. बहुत सुंदर प्रस्तुति.
    इस पोस्ट की चर्चा, रविवार, दिनांक :- 31/08/2014 को "कौवे की मौत पर" :चर्चा मंच :1722 पर.

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  4. हर जगह वही तो है...आपकी बात सही तो है...

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  5. मेरा सत्य असत्य सा और निर्जीव भी इसके बाद का सत्य ?
    और अंत ऊँ से हो गया ना अपूर्ण खुद अपने में ही पूर्ण
    बहुत सुंदर :)

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  6. तू है आसमा मे.,तेरी ये जमी है...,

    बहुत सुंदर रचना दीदी...:)

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  7. हमेशा की तरह कल को आज से जोड़कर अपनी बात कहती हुई यह रचना.... बहुत ही सुन्दर!!!

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  8. बहुत शुभ-कामना.
    सत्य---ही ईश्वर है--ईश्वर ही सत्य है,जो सत्य है वहे सुंदरतम है.
    ऐसा ही हो.

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  9. सत्य वर्णनातीत है मैं सोचता हूँ, परन्तु शाश्वत सत्य को ही वर्णित करने की आपकी अद्भुत और सफल कोशिश को मेरा प्रणाम। एक अच्छी कविता

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  10. सत्य चलायमान रहे ... सत्य रहे ... शाश्वत रहे ..

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  11. मेरा सत्य (असत्य सा निर्जीव)
    मेरे अस्तित्व की चेतना बन.......निरंतर अहर्निश ज्वलित
    चलायमान है....बहुत सुन्दर !

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  12. ..............
    निरंतर अहर्निश ज्वलित
    चलायमान है
    जैसे - ॐ
    ............... भावनाओं का ये रूप अनुपम

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एहसास

 मैंने महसूस किया है  कि तुम देख रहे हो मुझे  अपनी जगह से । खासकर तब, जब मेरे मन के कुरुक्षेत्र में  मेरा ही मन कौरव और पांडव बनकर खड़ा रहता...