मैं कोई ऋषि मुनि तो नहीं
पर जन्म से मेरे भीतर कोई समाधिस्थ है
कई ज्ञान के रहस्यमय स्रोत उसका स्नान करते हैं
ज्ञान की असंख्य रश्मियाँ उसे सूखाती हैं,तपाती हैं
लक्ष्मी प्रेम रूप में निकट से गुजरती हैं
मुक्त हाथों मोतियों के दान की शिक्षा
वीणा के हर झंकृत तार से सरस्वती देती हैं
श्राप के शब्द उसकी जिह्वा पर नहीं
पर ……
झूठ, अपमान के विरोध में
जब जब शिव ने उसकी शिराओं में तांडव किया है
अग्नि देवता की लपटें ही सिर्फ दिखाई देती हैं
जिसकी चिंगारियों में 'भस्म' कर देने का हुंकार होता है
सहस्त्र बाजुओं में कई मुंडमाल होते हैं
………………
..........
मैं अनभिज्ञ हूँ इस एहसास से
यह कहना उचित न होगा
ज्ञात है मुझे उस साधक की उपस्थिति
जो द्रष्टा भी है,कर्ता भी है ....
और इसे ही आत्मा कहते हैं
जिसे अपने शरीर से कहीं ज्यादा मैं जीती हूँ …
शरीर तो मिथ्या सच है
उसे मिथक की तरह जीना
बाह्य सच है
और यह बाह्य
जब जब अंतर से टकराता है
सुनामी आती है
साधक झेलता है
शरीर गलता है
समय की लकीरें उसे वृद्ध बनाती हैं
!!!
पर समाधिस्थ आत्मा बाल्यकाल और युवा रूप को ही जीती है
स्वस्थ-निरोग
समय के समानांतर
तभी -
वह अमर है -
साक्षी है !!!
वो है तभी मैं कहें या हम है
जवाब देंहटाएंजो भी है कुछ होने के लिये
कहीं तो कुछ है
नहीं तो खुद ही कह लेना
पड़ता खुद से ही
कुछ नहीं है कहीं भी
आभारी हैं उसके
कि वो है ।
वाह बहुत सुंदर ।
अद्भुत .... विचारणीय और सारगर्भित भाव
जवाब देंहटाएंअद्भुत
जवाब देंहटाएंसमुन्द्र दिखता है आपकी रचना
जवाब देंहटाएंसमुन्द्र दिखता है आपकी रचना
जवाब देंहटाएंबेहद गहनता लिये है ये साक्षी होने का भाव ....
जवाब देंहटाएंबेजोड कविता...,एक सुखद अनुभूति हुई इस कविता को पढकर...:) रश्मि दीदी..
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जवाब देंहटाएंमैं अनभिज्ञ हूँ इस एहसास से
यह कहना उचित न होगा
ज्ञात है मुझे उस साधक की उपस्थिति
जो द्रष्टा भी है,कर्ता भी है ....
और इसे ही आत्मा कहते हैं
जिसे अपने शरीर से कहीं ज्यादा मैं जीती हूँ …
मन के भीतर उपजते अपने होने के अस्तित्व को पहचानती
अपनी ही अनुभूति ---
संवेदन मन की अद्भुत रचना
सादर----
बहुत सुन्दर रचना`
जवाब देंहटाएंbahut hi sundar rachna...........
जवाब देंहटाएंआपके शब्द हमेशा मन में गहरे उतर जाते हैं ....सारगर्भित
जवाब देंहटाएंVICHAARNIY..MANOBHAAV DARSHATI RACHNA
जवाब देंहटाएंगहरी रचना
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