27 जून, 2015

कुछ भी असंभव नहीं



आँधियाँ सर से गुजरी हों 
टूट गया हो घर का सबसे अहम कोना 
तो तुम दुःख के सागर में डूब जाओ 
यह सोचकर 
कि अब कुछ शेष नहीं रहा 
तो तुम्हें एक बार बताना होगा
तुम ऐसा कैसे सोच सकते हो ?

घर का कोना सिर्फ तुमसे ही तो नहीं था 
कई पैरों ने की होंगी चहकदमियाँ उस ख़ास कोने में 
उस ख़ास घर में  … 
क्या तुम उन हथेलियों को थामकर मजबूत नहीं हो सकते ?
फिर से एक महत्वपूर्ण कोना नहीं बना सकते ?

जीने के लिए आँधियों का भय रखो 
मजबूत छतें बनाओ 
आँखों को जमकर बरसने दो 
पर जो हथेलियाँ तुम्हारी हैं 
उन पर भरोसा रखो !
वक़्त कितना भी बदल जाये 
स्पर्श नहीं बदलते 
उनका जादू हमेशा परिवर्तन लाता है 

तो -
निराशा के समंदर से बाहर निकलो 
किनारे तुम्हारे स्वागत में 
नए विकल्पों के साथ पूर्ववत खड़े हैं। 
दृढ़ता से पाँव रखो 
खुद को पहचानो 
फिर देखो,
कुछ भी असंभव नहीं 

12 जून, 2015

किसे लिखूँ किसे रहने दूँ !




मैं चाहती हूँ अपने को लिखना
लिख नहीं पाती  …
खोल सकती हूँ मैं मन की हर परतों को
लेकिन सिर्फ मैं' हूँ कहाँ !

चेहरे से निकलते चेहरे
जितने चेहरे उतने उद्धृत रूप -
श्रृंगार रस, हास्य रस, करुण रस
रौद्र रस, वीर रस, भयानक रस
वीभत्स रस, अद्भुत रस,शांत रस
जाने-अनजाने पात्र
रसों की अलग अलग मात्राएँ !

सोचती रही  …
भयानक रस लिखूँ
करुण रस लिखूँ
या वीभत्स !!
या फिर वह अद्भुत शांत रस
जो समानांतर जीवन का आधार रहा
जिसने श्रृंगार रस की उत्पत्ति की
हास्य रस का घूंट लिया
और रौद्र रस के आगे
वीर रस का जाप किया !

रसों के तालमेल को हूबहू लिखना
संभव नहीं होता
जीवन के वृक्ष में कई फल लगते हैं
मैं' तो सिर्फ जड़ें हैं  
और जड़ों की मजबूती में
आग,पानी,तूफ़ान,बर्फ सब होते हैं
तो,
किसे लिखूँ
किसे रहने दूँ !

08 जून, 2015

माँ' की पुकार ॐ की समग्रता से कम नहीं









ऐसा नहीं था
कि अपने "मैं" के लिए
मुझे लम्हों की तलाश नहीं थी
लेकिन इस "मैं" के आगे
'माँ' की पुकार
ॐ की समग्रता से कम नहीं थी
और जब "मैं" ॐ में विलीन हो
तो सम्पूर्ण तीर्थ है  …

लोग अच्छा दिन
बुरा दिन मानते हैं
मुझे वह हर दिन पवित्र लगा
जब बच्चों के नाम मेरी ज़ुबान पर रहे

दायित्वों की परिक्रमा पूरी करते हुए मुझे लगा
ब्रह्मा विष्णु महेश
दुर्गा,सरस्वती,लक्ष्मी,पार्वती  ....
सब मेरे रोम रोम में हैं

जब कभी मेरे आगे धुँआ धुँआ सा हुआ
मैं जान गई - बच्चे उदास हैं
सहस्त्रों घंटियों की गूँज की तरह
उनकी अनकही पुकार
मेरे आँचल को मुठी में पकड़ खींचती रही
और मेरा रोम रोम उनके लिए दुआ बनता गया 

मेरा घर, मेरा मंदिर,
मेरी ख़ुशी, मेरी उदासी
मेरे बच्चे  … 

एहसास

 मैंने महसूस किया है  कि तुम देख रहे हो मुझे  अपनी जगह से । खासकर तब, जब मेरे मन के कुरुक्षेत्र में  मेरा ही मन कौरव और पांडव बनकर खड़ा रहता...