वे जो अपने हैं
वे जो अपने नहीं थे
उसके बीच खड़ी मैं
निर्बाध
अनवरत ... प्रलाप करती हूँ
खुद में सुनती हूँ !
आवाज़ की छोटी छोटी लहरें
स्थिर चेहरा
शनैः शनैः बढ़ता आवेग
अस्थिर मानसिक स्थिति
खोल देती हूँ वो सुकून की खिड़कियाँ
जिन्होंने मुझे जीने की शीतल चाह दी
प्राकृतिक स्थितियों को डावांडोल होने से बचाया
....
सुनामी की स्थिति छंटने लगती है
सत्य सरस्वती की तरह
गंगा-यमुना सी कहानी के मध्य
स्थिर सा प्रवाहित होने लगता है
...
तदनन्तर
सुनने लगती हूँ अनुत्तरित सवालों के
अडिग,अविचलित जवाब
आंतरिक मुक्ति
और ईश्वर के अधिक साथ होने की स्थिति
मुझे और सशक्त करती है
जो कत्तई निर्विकार नहीं
क्षण क्षण लेती है आकार
ईश्वर की अदृश्य प्रतिमा गढ़ते हुए ... !
ब्रह्ममुहूर्त में जाग्रत मेरा मैं'
गंगा में गहरी डुबकी लगाता है
मौन लक्ष्य का शंखनाद करता है
प्रत्यक्षतः
मैं अति साधारण
करती हूँ
निर्बाध
अनवरत ... प्रलाप
गढ़ती हूँ अनुत्तरित सवालों के जवाब
जो गंगा का आह्वान करते हैं
शिवलिंग की स्थापना करते हैं
माँ दुर्गा की भुजायें निर्मित करते हैं
सरस्वती की वीणा को झंकृत करते हैं
विलीन हो जाते हैं ॐ में ...
वे जो अपने हैं
वे जो अपने नहीं थे
उनके बीच !!!
ऊँ ही सच है । झूठ और झूठ के बीच में । पैंडुलम की तरह डोलता हुआ । अपनो और नहीं अपनों के बीच। खुद को हल करता । गणित की किताब के अनुत्तरित सवालों की तरह । बहुत सुन्दर रचना ।
जवाब देंहटाएंबेमिशाल, बेहतरीन एवम आध्यात्मिकता की गहरी डुबकी लगाती रचना ।
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" रविवार 01 मई 2016 को लिंक की जाएगी............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंॐ में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड समाया है। उसी के इर्द-गिर्द घूमता हैं अंतर्मन। . .
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना ,,,
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " कर्म और भाग्य - ब्लॉग बुलेटिन " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंगहन रचना
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना है दीदी.
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