06 अप्रैल, 2017

अदृश्य हो गई हूँ




बहुत कुछ" जो मैं थी
बहुत से" जो मेरे ख्याल थे
अब मेरे साथ नहीं
...
दुःख की बात नहीं !!!
ऐसा होता है !!!!!

और
 इसे इत्तफ़ाक़ कहो
या होनी
परोक्ष या प्रत्यक्ष
असंभव या चमत्कार
तुमने मेरे भीतर के समंदर की
दिशा ही बदल दी  ...

मेरी सहनशीलता की नम रेत से
तुमने अनगिनत घरौंदे बनाए
फिर जब भी आगे बढे
उन्हें ठोकर से तोड़ दिया ...

मेरे प्रेम की अतिरेक लहरों ने
टूटे घरौंदों को समेट लिया
ये अलग बात है
कि रात के सन्नाटे में
मैं अपने किनारों से जूझती हुई
हाहाकार करती रही !
पर सुबह की किरणों के साथ
मैं संगीतमय हो गई  ...

लेकिन अब
न मेरे इर्द गिर्द रेत है
न मेरी लहरों में वो उल्लास
सूर्योदय हो
या सूर्यास्त
मैं नहीं गुनगुनाती  ...

सरगम जीवन से जुड़ा होता है
और
....
जो भी वजह मान लो
मैं सिमटकर नदी हो गयी हूँ
जो अब अदृश्य हो गयी है
...
लुप्त है वो
जिसे मैं ढूंढना भी नहीं चाहती !

10 टिप्‍पणियां:

  1. लुप्त है वो
    जिसे मैं ढूंढना भी नहीं चाहती !

    बहुत सुन्दर।

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  2. लुप्त है वो
    जिसे मैं ढूंढना भी नहीं चाहती !

    आपनी लेखन शैली ने मुझे कायल बना दिया है।

    धन्यवाद

    जवाब देंहटाएं
  3. संसार दुःखो का सागर है ,सारभौमिक सत्य, परन्तु आशा हमारे जीवन में दिनकर रूपी आस है ,हमें स्मरण रखना चाहिए। सुन्दर रचना !

    जवाब देंहटाएं
  4. बीज अंकुरित होता है, वृक्ष बनकर फैलता है, फिर फल बनता है और पुनः बीज में सिमट जाता है..जीवन जहाँ से आरम्भ होता है वहीँ उसे लौट कर आना होता है..धन्य हैं वे जो अपनी इच्छा से फैलाव को समेटने का दम रखते हैं..

    जवाब देंहटाएं
  5. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (09-04-2017) को
    "लोगों का आहार" (चर्चा अंक-2616)
    पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

    जवाब देंहटाएं
  6. सरगम जीवन से जुड़ा होता है
    और ....
    जो भी वजह मान लो
    मैं सिमटकर नदी हो गयी हूँ
    जो अब अदृश्य हो गयी है
    .. मर्मस्पर्शी .....

    जवाब देंहटाएं

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