तुम्हारी सिसकियों में शब्द ही शब्द थे
जिन्हें मैं सुनती रही
सिसकियाँ मेरी भी उभरी
निःसंदेह
उसमें मेरे आशीष के बोल थे !
...
मानती हूँ मैं
कि क्षणांश को
गुस्सा आता है
पर कई बार
उसकी अवधि बढ़ जाती है
शायद तभी
एक कमज़ोर रूह की मुक्ति
संभव होती हो !
लेकिन इस मुक्ति के बाद
आसपास कई शून्य चेहरों का
होता है शून्य स्नान
जाने कितने शब्द अटके होते हैं
अवरुद्ध गले में
जाने कितने शब्द चटकते हैं
सिसकियों में
शरीर भी असमर्थ
रूह भी असमर्थ
!!!
भागता शरीर
ठहरा मन
बड़ी अजीब सी स्थिति होती है
... !!!
सुनो,
जब भी चाहो
सिसकियों में शब्द गूँथना
बीता हुआ वक़्त
गले लग जाता है
अच्छा लगता है ...
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