दर्द एक तिलिस्म है
जितना सहो
उतने दरवाज़े
उतने रास्ते
...
बन्द स्याह कमरों में
घुटता है दम
चीखें
आँसू
निकलने को आतुर होते हैं
कई अपशब्द भी
दिमाग में कुलबुलाते हैं
लेकिन
मंथन होता रहता है
उनके और समय पर दी गई सीख का ...
और एक दिन
निःसंदेह तयशुदा वक़्त में
जब अँधेरा
पूरी तरह
बुरी तरह निगल लेता है
एक रौशनी निकलती है
और
बिना कुछ कहे
रास्तों पर खड़ी कर देती है
... बढ़ो,
जो मुनासिब लगे उस पर !!!
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (30-07-2017) को "इंसान की सच्चाई" (चर्चा अंक 2682) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंUttam
जवाब देंहटाएंसच समय पर दी गई सीख दर्द के समय बड़े काम आती है
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी रचना
दर्द जो व्यक्ति सहन करता है उसे ही पता होती है उसकी तीव्रता। सुंदर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंसचमुच .... ये तो देखा जिया सा है
जवाब देंहटाएंये भी ज़िंदगी का एक फ़लसफ़ा ही है । मात्र अहसास नहीं, वरन् एक सत्य, मरहम-सा ।
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