आत्मचिंतन
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मेरी आत्मा का चिंतन है
कभी सीधे
कभी टेढ़े
कभी भूलभुलैया रास्तों से
कभी ...,!
लहू को देखकर
लहूलुहान होकर
पंछियों को देखकर
पंछी,चींटी सा बनकर
कभी शेर की चाल देखकर
कभी गजगामिनी के रूप में
कभी लोहे के पिंजड़े में
दहाड़ते शेर को देखकर
हास्य कवि के मुख से
हास्य को जाता देखकर
कभी खिलखिलाने वाले के
सच को देख समझकर
सूक्तियों को पढ़कर
मुखौटों की असलियत में
...
कुछ न कह पाने की स्थिति में
होता है यह चिंतन
.... जो न संज्ञा समझता है
न सर्वनाम
न एकवचन
न बहुवचन
.... होता है सिर्फ चिंतन
खुद को समझाने की
और औरों को समझने की छोटी सी कोशिश
सिर्फ एक कोशिश !!!
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " 'बंगाल का निर्माता' की ९२ वीं पुण्यतिथि “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंबहुत आवश्यक होता है यह चिंतन, दी :)
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