देनेवाले,
तेरा दिया
तुझे ही देकर
सब बहुत खुश हैं !
सोने से तुम्हें सजाकर
डालते हैं एक उड़ती दृष्टि
अपने इर्दगिर्द
और मैं तोते की भांति रटती जाती हूँ
बिन मांगे मोती मिले ...
प्रभु,
तुम देते हो
और बिना माँगे
तुम्हें ही थोड़ा वापस मिल जाता है
!!!
प्रभु
थोड़ा मुझे भी दो न
....पर यकीनन -
तुम्हें जरा भी वापस नहीं दूँगी
हर दिन की तरह
तुम्हारे कमरे में झांकूँगी
रक्षा मन्त्र पढूंगी
कुछ चाह तुम्हारे आगे रखके
काम में लग जाऊँगी
....
झूठमूठ मैं न तो खुद को उलझाऊंगी
न तुम्हें ...
तुम्हीं बोलो,
सीढियां चढ़के
अब कैसे आ सकती हूँ
और सोने के सिंहासन पर
तुम्हारी मूर्ति रखकर क्या करूँगी !
तुम नदी, नाले
धूप, छांव
पहाड़, बियाबान ...
सबकुछ पार करके
सबके सर पर हाथ रखते हो
मेरे ऊपर अपना यह हाथ रखे रहो
जो बन पाए
मुझे देते रहो
मैं उसमें से किसी और को दूँगी
जिसके लिए तुमने ही एक मन दिया है
मैं जानती हूँ
पूजा विधि से अलग
इस बात से
मेरी विधि से तुम भी खुश रहते हो
....
तुम्हारी इस हँसी के आगे
मैं ही धूप
हवनकुंड
अगरबत्ती
दीया
.... गंगा जल
समझ लो स्वनिर्मित मंत्र भी
......
प्रसाद .... जो तुम दो
:)
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (09-12-2017) को "महँगा आलू-प्याज" (चर्चा अंक-2812) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वाह
जवाब देंहटाएंमेरी विधि से तुम भी खुश रहते हो .... बहुत सही !!
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