हम ही हमेशा लक्ष्य नहीं साधते
लक्ष्य भी हमें साधता है
जब हम हताश हो
उम्मीद की परिधि से हट जाते हैं
सब व्यर्थ है की भारी भरकम सोच से
ज़िन्दगी को निरुद्देश्य देखते हैं
तब लक्ष्य हमारी तरफ अग्रसर होता है
उम्मीदों की अनेकों पांडुलिपियाँ थमाता है
निर्विकार मन से कहता है
अर्जुन को भी
श्री कृष्ण की गीता
तभी सुनने को मिली
जब उन्होंने गांडीव को नीचे रख दिया !
कुछ भी पाने के लिए
खोना स्वीकार करना होता है
एक एक सत्य के लिए
झूठ के दलदल में धँसना होता है
रक्तरंजित मैदान में
मन के चक्रव्यूह से निकल
मस्तिष्क को शतरंज बनाना पड़ता है
लक्ष्य के बढ़े कदमों को
अर्थ देना होता है ...
एक पोस्ट में मैंने लिखा था कि घर को हम खोजते हैं लेकिन कई बार आपकी चाहत को देखकर घर भी आपके सामने आ जाते हैं। बहुत अच्छे विचार, बधाई।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (10-02-2018) को "चोरों से कैसे करें, अपना यहाँ बचाव" (चर्चा अंक-2875) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
और जब लक्ष्य हमें साधता है..उसका निशाना कभी खाली नहीं जाता..
जवाब देंहटाएंमंगलकामनाएं आपकी कलम को !
जवाब देंहटाएंजीवन जीने के लक्ष्य को पाने नम्रता का पाठ पढ़ाती सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंसादर
वाह!!बहुत सुंंदर ....लक्ष्य के कदमों को अर्थ देना पड़ता है ...वाह!!
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