08 अगस्त, 2018

अपने व्यक्तित्व को पहचानो, ... वही तुम्हारी कृति है ।




शब्दों की गहरी नदी में उतरकर,
कुशल तैराक बनी मैं,
सोच रही हूँ -
मैं एक कृति - अपने माँ पापा की,
वे भावातिरेक में आए होंगे,
तभी तो ऊँगली थमाकर मुझे कहा,
आगे बढ़ो ...
मैं बढ़ती गई,
अपने भीतर कुछ न कुछ गढ़ती गई,
स्तब्ध होती गई,
कितना कुछ छूटा,
कितना कुछ टूटा,
बेवजह कुछ जुड़ गया,
तार तार हुई मैं,
जार जार रोई,
कई संकल्प उठाये,
कई महत्वपूर्ण किनारे छोड़े,
मझदार को अपना विकल्प बनाया,
प्रश्नों के कटघरे में कहा एक दिन,
जवाब देना छोड़ो,
किसी जवाब से कुछ नहीं होगा ।
जो तुम्हारा है,
वह जवाबतलब करेगा नहीं,
और जो नहीं है,
वह किसी जवाब से संतुष्ट होगा नहीं ।
प्रश्नकर्ता की एक सनक होती है,
उसे मात देना होता है,
वह किसी भी स्तर पर उतरकर देगा ।
व्यर्थ की परेशानियों से खुद को मुक्त करो,
आँसुओं की नदी में निराधार बहने से बेहतर है,
अपने व्यक्तित्व को पहचानो,
... वही तुम्हारी कृति है ।
शैतान खुद को नहीं बदलता,
तो तुम किस परिवर्तन का संकल्प ले रहे ?
बाड़ का निर्माण करो,
बहुत ज़रूरी है खुद को सुरक्षित रखना,
न बुद्ध होने के ख्वाब देखो,
न यशोधरा बनने की चाह,
जो है,
उसे सम्भालकर रखो ...

8 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (10-08-2018) को "कर्तव्यों के बिन नहीं, मिलते हैं अधिकार" (चर्चा अंक-3059) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    जवाब देंहटाएं
  2. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार १० अगस्त २०१८ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
  3. सच है कोई किसी को नहीं बदल सकता, फिर व्यर्थ सोच दुःखी क्यों होना। जो अपना अस्तित्व है वही अपनी धरोहर है, कोई किसी के जैसा कभी नहीं बनता
    बहुत सुन्दर

    जवाब देंहटाएं
  4. अंतिम दो पंक्तियां में जीवनसार और अर्थपूर्ण रचना ! सादर !

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत सुंदर कथन अपना स्व मुखरित हो तो ही कोई बात है।
    अप्रतिम सुंदर।

    जवाब देंहटाएं
  6. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन नौ दशक पूर्व का काकोरी काण्ड और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

    जवाब देंहटाएं
  7. बाढ़ का निर्माण करो ... बहुत ज़रूरी है खुद को सुरक्षित रखना ..बहुत खूब

    जवाब देंहटाएं

एहसास

 मैंने महसूस किया है  कि तुम देख रहे हो मुझे  अपनी जगह से । खासकर तब, जब मेरे मन के कुरुक्षेत्र में  मेरा ही मन कौरव और पांडव बनकर खड़ा रहता...