माना,
मेरे पास गुलाबों की क्यारी नहीं,
लेकिन मेरे मन की एक पंक्ति
गुलाबों से भरी है ।
माना,
पंक्तिबद्ध रजनीगंधा नहीं,
लेकिन,
मेरा मन उसकी खुशबुओं से भरा है ।
माना,
किसी कोने में बोगनवेलिया नहीं,
लेकिन,
गज्जब की लालिमा छाई रहती है मन में ।
महानगर के छोटे से फ्लैट में,
कपड़े फैलाने के लिए भी भरपूर जगह नहीं,
लेकिन,
जब भी मेरे मन की बालकनी में देखोगे,
पाओगे बसन्त,
जो एक अक्षुण्ण विरासत है ।
माना,
मेरे सिरहाने के पास की छोटी सी मेज पर
एक बोतल,एक ग्लास, तेल,इत्यादि नहीं,
तकिए के नीचे,
कोई कलम डायरी नहीं,
लेकिन मेरे मन के दराज में सबकुछ है-
एक छोटी सी बोतल,
वो ठंडा तेल,
बड,
इयरफोन के ढेरों तार,
रबरबैंड,
डायरी में रोज का प्यार,
थोड़ा गुस्सा,
थोड़ा इंतज़ार,
थोड़ा डूबा डूबा मन,
और शून्य में खोई माँ की कलम से
आड़ी तिरछी खिंची रेखाएं !
मैं मन के घाट पर ही तर्पण अर्पण करती हूँ,
संभाले हुए संदूक में नेप्थलीन की खुशबू,
यह एहसास देती है
कि सबकुछ अपनी जगह पर है ।
मानती हूँ,
मैं मात्र दिखाने,बताने,जताने के लिए
कुछ नहीं करती,
बिना किसी उठापटक के
उसे कतरा कतरा जीती हूँ
हर दिन ।
मन की दुनिया अजब निराली
जवाब देंहटाएंअनजानी कुछ देखी भाली
मन में जब तक फूल न खिलें हों बाहर के फूल भी नजर कहाँ आते हैं..
थोड़ा थोड़ा मगर सब कुछ बना रहे।
जवाब देंहटाएंकतरा कतरा जीना बड़ी बात है....
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (19-06-2019) को "सहेगी और कब तक" (चर्चा अंक- 3371) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन वीरांगना रानी झाँसी को नमन : ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
जवाब देंहटाएंमेरे सिरहाने के पास की छोटी सी मेज पर
जवाब देंहटाएंएक बोतल,एक ग्लास, तेल,इत्यादि नहीं.......
लेकिन मेरे मन के दराज में सबकुछ है।
बहुत खुब। क्या बात कहा है आपने! यदि अनुमति हो तो इस कविता को अपने ब्लॉग पर भी पोस्ट करना चाहुँगा। राजीव उपाध्याय
जी बिल्कुल
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