तुम्हें नींद आ रही है,
तुम लिहाज में जगे हुए हो !
तुम्हें भूख लगी है,
तुम लिहाज में कह नहीं रहे !
तुम्हें खेलने का मन नहीं,
तुम ख्याल रखने में खेल रहे हो !
तुम्हें चुप रहने का मन है,
लेकिन तुम बातचीत में शामिल हो !
तुम्हारी घूमने की इच्छा नहीं,
लेकिन सब जोर दे रहे हैं,
तो तुम निकल जाते हो !
तुम्हारे भीतर रुलाई दबी है,
लेकिन रो नहीं सकते...!
समझाइशों की फेहरिस्त तुम्हारे हाथ में होगी,
तुम बेचारगी से मुस्कुराओगे !
तुम चीखना चाहते हो,
लेकिन चीखते ही आलोचनाओं के घेरे में होगे !
तुम आज अपनी पसंद से
रोटी,नमक, प्याज ही खाना चाहते हो,
पर सवालों के घी, अचार, पापड़ दे ही दिए जाएंगे
नहीं लिया तो सनकी,
ज़िद्दी, अजीब कहे जाओगे ।
तुम सरल हो,
सबको खुश रखना चाहते हो,
आज इसके लिए,
कल उसके लिए चलना चाहते हो
तो चलो न
कौन रोकता है ?
पर ये जानकर, ये मानकर चलो
कि तुम्हारा अतीत हो,
वर्तमान हो या भविष्य !
तुमको कोई भी सही नहीं कहेगा
और तुम !!!
'अवसादग्रस्त' कहे जाओगे।
ज़ाहिर सी बात है, ऐसा कहलाना
जो तुम नहीं हो ...
तुम्हें रातों को जगाएगा,
अकेला होते ही रुलाएगा,
एक न एक दिन -
घोर अवसाद में छोड़ जाएगा।
उससे पहले कि
एक लाइलाज बीमारी के नाम से
तुम घोषित कर दिए जाओ,
बेबाक होकर अपनी बात कहो !
इस डर में मत रहो कि
तुम्हें छोड़कर सब चले जाएंगे !
अरे वे सब अभी भी,
तुम्हारे साथ कहां हैं !
तुम उनके लिए हो ही क्या ?
ऐसी अंत्याक्षरी का हिस्सा,
जिसमें गलत गानों पर भी
अंक नहीं कटते,
निरर्थक समय बिताने के लिए
जिसे यूं ही खेला जाता है...
कि कुछ नहीं तो यही सही !
अगर ये तुम्हें कबूल है
तो क्या कहना !
पर कबूल नहीं है
तो हटाओ ये बेमौसम छाया कोहरा,
किसी कीमत पर मत बनो
उनके मनोरंजन का मोहरा !!!
उन्हें हैरानी होगी ?
होने दो!
वे तुम्हें कानी गाय कहेंगे ?
कहने दो!
भीड़ से बहिष्कृत कर देंगे तुम्हें ?
करने दो!
वैसे भी तुम उनके लिए
कभी कुछ नहीं थे ...
सदा से इस सच के उजाले में ही जाग रहे हो ना !
फिर भी,
कुछ बनने की खातिर
बेतहाशा भाग रहे हो !
पांव डगमगाएं, मुंह के बल गिरो
और कोई उठाने वाला न हो...!
बेहतर होगा,
खुद को समझा लो
उस भीड़ से अलग हो लो !
चोट फिर भी लग सकती है
पर उस चोट में आनंद होगा -
आज़ाद परवाज़ होने का ;
लहूलुहान होकर भी,
तुम्हें खुद के लिए एहसास होगा -
विश्वास होगा
अपने वजूद के बाज़ होने का !
क्षत होकर, विक्षत होकर सोचो,
अपने लिए मनलायक भीड़ का
पहले चयन करो...
फिर मस्ती में झूम के,
अपने ज़ख्मों को चूम के
उसके साथ हो लो...!
हमसफ़र होने को,
कहीं राह देख रही होगी मंज़िल !
बहुत सुन्दर सृजन
जवाब देंहटाएंमर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति दी।
जवाब देंहटाएंसादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार ८ अगस्त २०२४ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
सुन्दर सृजन
जवाब देंहटाएंवाह!बेहतरीन सृजन!सुन्दर और सटीक।
जवाब देंहटाएं"...
जवाब देंहटाएंतुम आज अपनी पसंद से
रोटी,नमक, प्याज ही खाना चाहते हो,
पर सवालों के घी, अचार, पापड़ दे ही दिए जाएंगे
नहीं लिया तो सनकी,
ज़िद्दी, अजीब कहे जाओगे ।
..."
"...
इस डर में मत रहो कि
तुम्हें छोड़कर सब चले जाएंगे !
..."
"...अपने लिए मनलायक भीड़ का
पहले चयन करो..."
वाह! अप्रतिम, अप्रतिम, अप्रतिम...रचना।