06 अप्रैल, 2009

अपवादित सच !


पिता !
वह शब्द,
वह संबोधन,
जो ढाल बनकर
हर मुसीबतों से
हमारी रक्षा करता है !
ज़िन्दगी के सम्मान का पर्याय बन
साथ चलता है !
वह नाम,
जहाँ से एक पहचान मिलती है,
अंधेरे से डर नहीं लगता...........
रौशनी कवच बन
वह पास रहता है !
पर्वत-सी विराट छवि लिए
वह गर्व से भर देता है.............
..............
पर,
जब-जब तुम्हें देखा ,
तुम्हारी आँखें -
मुझे बेचैन कर गयीं !
एक तलाश में अपमानित वजूद,
नफरत से भींचे होठ
कितना कुछ कहना चाहते हैं............
हँसते हुए भी,
एक ज़हरीला दंश,
पूरे रक्त में
अग्नि की तरह दहकता नज़र आता है !
अखंड ज्योति की उजास में भी,
एक खाली मौन देखा है !
महसूस किया है इस सच को-
कि,
कुछ धरती बंजर रह जाती है,
सूखे रहना पसंद करती है,
बीजों को पनपने
और लहलहाने का मौका नहीं देती..........!
नाम का मिलना,
यूँ शर्मनाक भी होता है
तुम्हे देखते हुए जाना है
और पिता की परिभाषा को
चाक-चाक होते देखा है !

33 टिप्‍पणियां:

  1. ek adbhut dil ko chu lene wala rachana likha hae aap ne , mujhe bahut hi achha laga .....

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  2. KISI KE DIL KE DARD KO KAVITA ME ACHHI TARAH SE UKERNA AATA HAI AAPKO..THIK LAGI..!!

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  3. नाम का मिलना,
    यूँ शर्मनाक भी होता है
    तुम्हे देखते हुए जाना है
    और पिता की परिभाषा को
    चाक-चाक होते देखा है !
    kavach bhi aur kabhu kabhu talwaar bhi,do roop ek hi rishte bahut sunder tarike se abhivyakt huye hai,bahut badhai

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  4. ... बेहद कठिन अभिव्यक्ति है, भावार्थ ठीक से समझ मे नही आ रहे है, किस नजरिये से क्या अभिव्यक्ति है यह समझना कठिन महसूस हो रहा है।

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  5. बहुत सुंदर रचना ... अच्‍छी भावाभिव्‍यक्ति।

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  6. कुछ धरती बंजर रह जाती है,
    सूखे रहना पसंद करती है,
    बीजों को पनपने
    और लहलहाने का मौका नहीं देती..........!
    -गहन ,मिश्रित भाव और अनकही संवेदना को शब्द दिए हैं.

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  7. पर्वत सी विराट छबी जो गर्व देती है ...
    वही विराट पर्वत जब अपने भार तले दबा देता है तो वहा खामोशी सा सन्नाटा ही नज़र आता है .... और यही जिन्दगी का अपवादित सच है , जो हर कोई नहीं महसूस कर सकता है ....

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  8. "अविवादित सच !" एक अभूतपूर्व कविता, जहाँ कविता का पहला भाग "पिता" जैसे व्यक्तित्व की ईश्वरीय छवि प्रस्तुत करता है, वही दूसरा भाग चंद पिताओ की दिल को तार- तार कर देने वाली आलोचना है, जो पिता शब्द की मर्यादा और जिम्मेवारी का मोल नहीं समझ पाते और इस शब्द को अपवित्र कर जाते है |

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  9. आपकी कविता का पहला भाग जो पिता को समर्पित है..मुझे बहुत ही अच्छा लगा..!पिता से जो अपेक्षाएं होती है..वो मैं जानता हूँ...पर पिता के साए से वंचित हूँ...आपने बहुत ही दिल से लिखा है..धन्यवाद..

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  10. रश्मि जी ! पिता बनना और पिता होना दौनों अलग अलग बातें हैं ,आपने बहुत रहस्यमय ढंग से अभिव्यक्ति दी है !शब्दों की धनी हैं आप और गहरे पैठती हैं !

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  11. bahut achche dhang se satya ko bayan kiya hai aapne.........baki sant sharma ji ne jo kaha usse main sahmat hun.

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  12. rashmi di ..

    kavita do hisson mein banti hui hai pehle mein pita se apekshayein hain aur doosre mein uske prati aakrosh ka bhaw dikhaayi deta hai .. bahut sundat prastuti hai .. apko badhai, aise likhte rahiye hame padhnte rehne ka saubhagya milta rahega .. shubhkamnayein

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  13. रश्मि जी आपकी यह कविता मुझे बेहद पसंद आई ..पिता का सुरक्षा कवच और पिता की परिभाषा को चाक चाक होते देखना ..दोनों ही बेहद दिल को छु लेने वाली बाते हैं ..बहुत अच्छालिखा आपने ..

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  14. जब सुरक्षा चक्र का रचयिता ही सुरक्षा चक्र भेदने लगे ...
    जब माली ही अपनी बगिया की कली तोड़ने लगे ....
    तो कली किससे जा कर फरियाद करे ......

    बहुत मार्मिक रचना है ....... पढ़ के दिल दुखता है .....

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  15. रश्मि जी,

    नाम का मिलना,
    यूँ शर्मनाक भी होता है
    तुम्हे देखते हुए जाना है
    और पिता की परिभाषा को
    चाक-चाक होते देखा है !


    संस्कारित आदर्शों को चकनाचूर कर रहे आज के तथाकथित पिताओं की कार्य शैली पर किसी नारी का वर्षों का वेदना भरा उपरोक्त अहसास मुखर हो हार्दिक शापयुक्त किस तरह हो सकता है आपकी निम्न पंक्तियाँ एक दम सटीक बयां कर रही हैं .....

    कुछ धरती बंजर रह जाती है,
    सूखे रहना पसंद करती है,
    बीजों को पनपने
    और लहलहाने का मौका नहीं देती..........!

    उत्तम रहस्यमयी प्रस्तुति द्वारा अलख जगाने के इमानदार प्रयास को मेरा नमन

    चन्द्र मोहन गुप्त

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  16. I can't tell you how much touched I am with this creation...this has definitely struck a cord within me...well there are many fathers who never understand the definition of the term "father". Sad it is but there are many truths like this amongst us!

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  17. बहुत खूब लिखा है इन दिनों मैं एक कहानी लिख रहा था जो आपकी कविता में सिमट आई है "बच्चे फूल कमल तो गहरी झील पिता है"

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  18. मार्मिक और भावपूर्ण.साधुवाद.

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  19. इस रचना की प्रशंशा शब्दों में संभव नहीं....अद्भुत...वाह वा ही किया जा सकता है बार बार.,..
    नीरज

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  20. बहुत ही मार्मिक रचना है। बहुत पसंद आई। दोनो भागों में ही मिश्रित भावों की सुंदर अभिव्यक्ति है।
    बधाई।

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  21. किसी भी नाम के तले दबना बहोत भारी होता है..चाहे वो गुरु हो चाहे वो पिता हो..सब को अपने नाम के सहारे जीना देना चाहिए..

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  22. आदरणीय रश्मि जी,
    एक बच्चे के मन की bhavnaon को अपने सुन्दर अभिव्यक्ति दी है ..

    पूनम

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  23. और पिता की परिभाषा को
    चाक-चाक होते देखा है !

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  24. Pitaa, ek aisaa ped hai jiske neeche kayi choti choti paudh janam leti hain aur uske sahaare padhti hai. Par..

    wah ped thoont ban jaaye to na hi wah bhojan dene yogya reh jaata hai aur na hi chaaya..

    aapki kavita ne na jaane kitne bhaaw man me laa diye..

    Hamesha ki hi tarah..dil ko choone waale shabd aur un shabdon me choopi ek sachaaee..

    --Gaurav

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  25. दोनो भावो को खूबसूरती से पिरोया है।

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  26. दो छोरों पर खड़े दो सच...
    एक के प्रति सम्मान , दूसरे के प्रति वितृष्णा का भाव

    रहस्यमय ढ़ंग से प्रस्तुत किया है सच्चाईयों को!
    सुन्दर!

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  27. अभिव्‍यक्ति के दोनो पहलू आईना ज्‍यों जिंदगी का ..गहन भाव लिए उत्‍कृष्‍ठ रचना ।

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  28. पिता की परिभाषा को चाक चाक होते देखना ..

    बेटियां पिता को ही अपना आईडियल मानती हैं . और जब विवाह के पश्चात पति के रूप में अलग व्यवहार पाती हैं तो मन भ्रमित हो जाता है ..बहुत ज़रूरत होती है सामंजस्य की ..पर कभी कभी हर कोशिश नाकामयाब हो जाती है ..
    जिंदगी के सच को सार्थक शब्द दिए हैं ... अभी तक दो छोर के बीच में उलझ रही हूँ ..

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  29. तुम्हे देखते हुए जाना है
    और पिता की परिभाषा को
    चाक-चाक होते देखा है !

    दो किनारे.. दो रंग...
    अद्भुत रचना दी..
    सादर.

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एहसास

 मैंने महसूस किया है  कि तुम देख रहे हो मुझे  अपनी जगह से । खासकर तब, जब मेरे मन के कुरुक्षेत्र में  मेरा ही मन कौरव और पांडव बनकर खड़ा रहता...