31 अगस्त, 2009

इमरोज़



सपनों में दबे पांव कोई आता है
मेरी खिड़की पर एक नज़्म रख
चला जाता है
आँख खुलते नज़्म इमरोज़ बन जाती है

19 अगस्त, 2009

आज के लाइफ स्टाइल से आप कितने संतुष्ट हैं???

(शुरू में स्पष्ट कर दूँ ....किसी विषय पर बात करने का अर्थ यह नहीं होता कि उसके दूसरे पहलू नहीं , पर ९५% और % का फर्क होता है...)

आज की लाइफ स्टाइल-'शोर', चलती सुपरफास्ट के सामने से जैसे दृश्य बदलते हैं,वैसा माहौल ! डिस्को,कम कपड़े ,नशे में डूबा समूह ......कहने का दिल करता है,
मैं खो रही हूँ...
किसी सन्नाटे में
विलीन हो रही हूँ !
मौन-
जो सुनाई ना दे किसी को
उसीमें अंकित हो गई हूँ !
आकाश मेरी मुठ्ठी से निकल रहा है
धरती खिसक रही है
बदलते परिवेश की दस्तकों ने
मुझे पहचानने से इन्कार कर दिया है !
किसे आवाज़ दूँ?
और कैसे?
स्वर गुम हो गए हैं....
जहाँ तक दृष्टि जाती है
घर-ही-घर हैं
पर दूर तक बन्द दरवाज़े ...
कोलाहल में भी,
अंधे,गूंगे,बहरों की बस्ती -सी लगती है !
जहाँ खड़ी हूँ
वह जमीन अपनी नहीं लगती
परिवेश अपना लगता है
आईने में
अपना चेहरा भी
अजनबी-सा लगता है !!!!!!!




यह सच है कि वक्त की रफ़्तार तेज़ है,पर रिश्तों का मापदंड क्यूँ बदल गया ?इन पंक्तियों का अर्थ आज भी है -"सत्यम ब्रूयात,प्रियं ब्रूयात,


ब्रूयात सत्यम अप्रियम "


और आज अप्रिय सत्य ही बेबाकी से बोलने में शान है,नंगा सत्य प्रस्तुत करने की होड़ है..........
हो सकता है , मैं विषय के सिर्फ एक पहलू पर गौर कर रही होऊं ,इसलिए अपने परिचितों के मध्य अपना सवाल रख दिया और ये रहे उनके क्रमवार विचार...................




सरस्वती प्रसाद (http://kalpvriksha-amma.blogspot.com/)


माना ये सच है - 'परिवर्तन होता इस जग में
प्रकृति बदलती है
दिन की स्वर्ण तरी में बैठी
रात मचलती है'
फिर भी, हद हो गई ! आज की लाइफ स्टाइल को देखकर लगता है भारत में अमेरिका उतर आया है. सर से पांव तक आधुनिकता की होड़ लगी है. नैतिकता की बातें विस्मृत हो चुकी हैं. वर्जनाएं रद्दी की टोकरी में फ़ेंक दी गयी हैं . अश्लील क्या होता है-कुछ नहीं . संस्कार की बातें दकियानूसी लगने लगी हैं. एक-दूसरे को लांघकर आगे निकल जाने की ऐसी होड़ लगी है,कि फैलती कामनाओं के बीच भावनाएं दब गयी हैं. जीने को अपने निजी विचार , अपना घेरा है . इसमें औरों का कोई स्थान नहीं . संबंधों की एक गरिमा हुआ करती थी,आज के सन्दर्भ में उसका कोई स्थान नहीं. वेश-भूषा , खान-पान जीवनचर्या में भारत महान कहीं नज़र नहीं आता . जिस हिंदी पर हमें नाज था,वह पिछडे लोगों की भाषा बनती जा रही है .शिष्टता , आदर-सम्मान,व्यवहार,बोली- जो व्यक्ति की सुन्दरता मानी जाती थी,उस पर आडम्बर का लेप लग गया है. लज्जा, जो नारी का आभूषण था , आज की लाइफ स्टाइल में कुछ इस तरह गुम हुआ कि कहीं भीड़ में जाओ तो लगता है कि अपना-आप गुम हो गया है और खुद की आँखें ही शर्मा जाती हैं . भागमभाग का ऐसा समां है कि किसी से कुछ पूछने का समय है और अपनी कह सुनाने की कोई जगह रही.....
आलम है - ' आधुनिकता ओढ़कर हवा भी बेशर्म हो गई है
उसकी बेशर्मी देख गधे
जो कल तक ढेंचू-ढेंचू करते थे
आज सीटियाँ बजाने लगे हैं
गिलहरी डांस की हर विधा अपनाने को तैयार है
पर कुत्तों को अब किसी चीज में दिलचस्पी नहीं
वे अपनी मूल आदत त्याग कर
भरी भीड़ में सो रहे हैं
समय का नजारा देखते जाओ
रुको नहीं , चलते जाओ
अब 'क्यों' का प्रश्न बेकार है !




नीता कोटेचा (http://neeta-myown.blogspot.com/)


आज की लाइफ स्टाइल ये है...कि सब अपने अपने काम में व्यस्त है...किसी के पास किसीके लिए वक्त नहीं है...सब अपनी परेशानियों में डूबे हुए हैं ..या फिर अपनी दुनिया में अच्छे से अच्छे रंग भरने में लगे हुए है..पहले लोग दुसरो के लिए जीते थे..आज सिर्फ खुद के लिए.. आज कोम्पुटर ने और मोबाइल ने परायों को करीब ला दिया है और अपनों को दूर कर दिया है...कभी कभी लगता है की अच्छा है कि ये मशीन बना ..अगर यह ना होता तो बहुत सारे लोग बीमार हों जाते..डिप्रेशन के शिकार हो जाते..पर क्या ये होने के बावजूद लोग इस बीमारी के शिकार नहीं है..यहाँ देखा है कि सब लोग प्रेम को तरसते है...शायद मै भी उसीमे से एक हूँ ..पर ऐसा क्यों..हमने कभी अपने बड़ों के मुंह से सुना था कि घर में प्यार ना मिले तो बच्चा बाहर जाता है..तो क्या हम में से बहुत सारे लोगों को प्रेम नहीं मिला..या काम पड़ रहा है..
पता नहीं चल रहा कि हम गलत हैं या सही हैं ॥पर सब कुछ मिलने के बाद भी एक अधूरापन महसूस होता है..लगता है कि सब को खुद की जिन्दगी जीनी है...ना हम उसमे दखलंदाजी कर सकते है..और ना हम उनको सलाह दे सकते है..तो फिर हमारा काम क्या है...और हम भी चुपचाप अपने रास्ते खोजना शुरू करते है..जिससे बाकि लोगो को तकलीफ होती है...तो हम क्या करे।??वापस जिन्दगी एक सवाल बनके खड़ी हों जाती है..कि क्या हम संतुष्ट है??




प्रीती मेहता (http://ant-rang.blogspot.com/)


आज पिज्जा एम्बुलेंस से फास्ट पहुचता है घरडिस्को, पब्, फास्टफूड, ८० gb का आई - पॉड, N सीरीज़ का मोबाइल, लैपटॉप, ब्रांडेड कपड़े, जूते इत्यादि .... शायद यही पहचान बन गई है आज की... आज के बच्चेबे-ब्लेडखेलेंगे, परलट्टूयागिल्ली - डंडानहीं. जगह जगह से फटे कपड़े - फैशन का पर्याय बन जाते है, बडों को प्रणाम करना डाउन मार्केट है. आज उपरी दिखावा ही सब कुछ है .ज़माने के साथ कदम मिलाना अच्छी बात है, पर यह भी देखा जाये कि कदम मिलाते हुए कदम बहक ना जायेकुछ बाते है जो आज की लाइफ स्टाइल में अच्छी भी हैजैसे कि आज का युवा वर्ग बहुत प्रैक्टिकल है. सकारात्मक है , आगे बढ़ने की चाह है . आज की सोच मर्यादित नहीं रह जाती , उसे कई माध्यमो से लोगो तक आसानी से पहुचाया जा सकता है
इसलिए …. कह सकते है की आज की life style 50% नकारात्मक तो 50% सकारात्मक भी है

H.P. SHARMA

मन, मैला, तन ऊजरा, भाषण लच्छेदार,
ऊपर सत्याचार है, भीतर भ्रष्टाचार।
झूटों के घर पंडित बाँचें, कथा सत्य भगवान की,
जय बोलो बेईमान की !

प्रजातंत्र के पेड़ पर, कौआ करें किलोल,
टेप-रिकार्डर में भरे, चमगादड़ के बोल।
नित्य नई योजना बन रहीं, जन-जन के कल्याण की,
जय बोल बेईमान की !

महँगाई ने कर दिए, राशन-कारड फेस
पंख लगाकर उड़ गए, चीनी-मिट्टी तेल।
‘क्यू’ में धक्का मार किवाड़ें बंद हुई दूकान की,
जय बोल बेईमान की !

डाक-तार संचार का ‘प्रगति’ कर रहा काम,
कछुआ की गति चल रहे, लैटर-टेलीग्राम।
धीरे काम करो, तब होगी उन्नति हिंदुस्तान की,
जय बोलो बेईमान की !

दिन-दिन बढ़ता जा रहा काले घन का जोर,
डार-डार सरकार है, पात-पात करचोर।
नहीं सफल होने दें कोई युक्ति चचा ईमान की,
जय बोलो बेईमान की !

चैक केश कर बैंक से, लाया ठेकेदार,
आज बनाया पुल नया, कल पड़ गई दरार।
बाँकी झाँकी कर लो काकी, फाइव ईयर प्लान की,
जय बोलो बईमान की !

वेतन लेने को खड़े प्रोफेसर जगदीश,
छहसौ पर दस्तखत किए, मिले चार सौ बीस।
मन ही मन कर रहे कल्पना शेष रकम के दान की,
जय बोलो बईमान की !


Alok srivastava <coolaries26@gmail.com>


वर्तमान समय मे जिस लाइफ स्टाइल को आज का युवा वर्ग आत्मसात किये हुए है, वह कही से भी लम्बी दूरी के सोच के अनुकूल नहीं है| आज का जीवन स्तर पूरी तरह से मै पर निर्भर है, केवल अपनी आवश्यकता और उसके समाधान तक की सोच है, आज के समय मे लोगो की| उपभोक्तावाद इस कदर हावी है की लोग अब उधार की ज़िन्दगी मे ज्यादा विश्वास करते है, और अपना मानसिक सकूं खो देते है उस उधार को पूरा करने के जद्दोजहद मे| उन्हें हर वह चीज़ चाहिए जिसे वो दुसरे के पास देखते है, भले ही वह उनके लिए आवश्यक हो अथवा ना हो पर चाहिए ही चाहिए| आज के समय मे वस्तु इंसान से ज्यादा महत्वपूर्ण है |वस्तु से प्यार है लोगो को इंसान से नहीं|
सुबह से लेकर रात तक भागता रहता है इंसान, और देर रात जब थक कर इंटो की चाहरदीवारी(घर तो रहा ही नहीं अब) के भीतर पहुँचता है, तो उसके पास स्वयं तक के लिए समय नहीं बचा होता और फिर कल के लिए सोचते हुए सो जाता है|
अगले दिन पुनः वही दिनचर्या|
पिपासा है की शांत होने का नाम ही नहीं लेती और उसको शांत करने के फेर मे इंसान सबकुछ भूल कर लगा पड़ा है|
एक समय मे जो संतोषम परम सुखं की बाते करता था आज लालच मे अँधा हुआ पड़ा है |

बड़े होने के दो तरीके है :
एक आप खुद को बड़ा बनाओ और दूसरा बाकी लोगो को छोटा कर दो|
आज के समय मे दूसरा वाला रास्ता ही ज्यादा प्रचलन मे है
दुसरो को गिरा के, नीचा दिखा के, हतोत्साहित करके, ज्यादा सुख की अनुभूति होती है |
आगे बढ़ने की लालसा इतनी तीव्र है, की उसके लिए कोन से रास्ते का चुनाव किया है इसका कोई महत्त्व नहीं है|
सबकी नज़रे केवल अंतिम परिणाम पर टिकी रहती है,
कोई ये नहीं जानना चाहता की यह परिणाम कैसे और क्यूँकर प्राप्त किया गया है|

हमें तो नहीं लगता की आज के लाइफ स्टाइल से कोई भी संतुस्ट है
सभी की अपनी अपनी भौतिक लाल्साये है और वह उन्हें पूरा करने के लिए लगा पड़ा है
इस धरती के वासियों की कर्म प्रधान सोच अब परिणाम प्रधान हो गयी है


Vinita Shrivastava <vinnishrivastava1986@gmail.com>

कई बार मन् में उठता है सवाल कि क्या लिखूँ?
क्या लिखूँ कि आधुनिक रहन सहन में,
भारतीय संस्कृति दिनों दिन लुप्त होती जा रही है,
या लिखूँ .......
विदेशी सभ्यता के बारे में ,
जिसमें हमारी पीढियां लुप्त होती जा रही है |
क्या लिखूँ मै
क्या लिखूँ कि आधुनिक रहन सहन को बढावा दे रहे सब ,
या लिखूँ कि हम अपने आपको खो रहे हैं
क्या लिखूँ मैं
क्या लिखूँ ,
-हिंदी की महानता
जो किताबो में सिमट गई है
या लिखूँ ......
अंग्रेजी के बारे में
जो भारतीयों के शरीर में लहू के सामान घुल गई है
क्या लिखूँ मै......
क्या लिखूँ मै .............


लगभग 60% !!!!!!!!!!!!!
सबसे बडी बात है-- कि , आप आजाद हैं..
तो सोच सकते हैं, राय ले सकते हैं, कोशिश कर सकते हैं,
ऐसा पहले नहीं था.....................................................
माना कि हवा ,पानी , खाना शुद्ध था...पर कितने
लोगों को मय्यसर होता था........आज आपके पास.....
विकल्प है..आज आप अपनी लाइफ स्टाइल बना सकते हैं.........


मंजुश्री ,


प्रश्न है कि क्या हम अपने मौजूदा हालात से संतुष्ट हैं.......जहाँ तक संतुष्ट होने का सवाल है तो आदमी कभी भी,किसी भी काल में अपने वर्तमान हालात से संतुष्ट नहीं रहा है . असंतोष सड़े-गले
रीति-रिवाजों का ,परम्पराओं का ,अंधविश्वासों का ,..... इन सारे बन्धनों से मुक्त होने के लिए वह निरंतर संघर्ष करता रहा ...और धीरे-धीरे उसने अनेक बेडियाँ तोडीं ,अनेक बन्धनों से आनेवाली पीढी को मुक्ति दिलाई . लेकिन हर नई पीढी को लगा कि उसे और मुक्ति चाहिए,और आज़ादी चाहिए. आज़ाद होते-होते आज मौजूदा पीढी जीवन के हर मूल्य से आज़ाद हुई नज़र आती है . सभ्यता,संस्कृति की दुहाई देनेवाले देश में संस्कृति मखौल का विषय बन गई और सभ्यता धुंधली पद रही है. पहनावे में,बोलचाल में,रहन-सहन में हर गलत चीज को मान्यता मिल रही है . ऐसे में भला कोई संतुष्ट कैसे हो सकता है !!!!!!!


शोभना चौरे (http://shobhanaonline.blogspot.com/)


आज कि लाइफ स्टाइल से कितने संतुष्ट है
कोनसी लाइफ स्टाइल ?है आज हमारे पास काकटेल है पूरब और पश्चिम का |
न ही पूरब अपना प् रहे है और न ही अपना छोड़ पा रहे है और छोड़े भी क्यों?हमारी अपनी जीवन शैली है |किन्तु आज जबकि हर दूसरे परिवार का कोई नाकोई व्यक्ति विदेश में जा बसा है या आता जाता है तो वहा कि
संस्कति रहन सहन अपनाना स्वाभाविक हो जाता है |फिर भी वः अपनी जडो को नही भूलता |
पिछले डेढ़ दशक में मध्यम वर्गीय परिवार के बच्चो को निजी संस्थानों में नौकरी के अच्छे अवसर मिले और वे अपनी योग्यता के बल पर आर्थिक रूप से सक्षम हुए जिसके लिए उन्हें अपने घर से मिलो दूर रहना पडा |और दिन के
रोज १२ -१२ घंटे काम करना होता है तो उनकी जीवन शैली निश्चित रूप से अलग होगी \अपने समाज से दूर उसका एक नया समाज बन जाता है अपने सामाजिक कार्यक्रमों में चाहकर भी वो शामिल नही हो पाता |और अपनों से दूर हो जाता है तब आधुनिक संचार मध्यम ही उसका सहारा बन जाते है और उसका वो आदी हो जाता है |या यु भी कह सकते है वो संतुष्ट हो जाता है अपनों से बात करके |तब उसे जरुरत नही पडती कि वो अपने आसपास झांके |
और एक धारणा बन जाती है हम अपने पडोसियों को अनावश्यक क्यों तकलीफ दे ||और वह नही चाहता कि कोई उसके निजी जीवन में दखल दे और वह भी किसी के निजी जीवन में दखल नही देता |
और मेरे हिसाब से इसके मूल में आर्थिक समर्थता बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निबाहती है |


लोग छोड़ जाते है रोनके
हम तो शून्य भी साथ ले जाते है |

कहने को जिन्दगी हंसती रही
आँखों में आंसू तैर जाते है |

जो गरजते हैं वे बरसते नहीं

 कितनी आसानी से हम कहते हैं  कि जो गरजते हैं वे बरसते नहीं ..." बिना बरसे ये बादल  अपने मन में उमड़ते घुमड़ते भावों को लेकर  आखिर कहां!...