09 अगस्त, 2009

मनःस्थिति !


सर्कस के जोकर को देखा है ना?
ना देखा हो
तो मुझे देखो
मनःस्थिति से परे
हास्य-राग गाती हूँ...........
तुम्हें गुस्सा आ सकता है
मेरे हास-परिहास पर
उन्हें भी आता था
(किन्हें? यह प्रश्न रहने दो),
हाँतो उन्हें भी आता था गुस्सा
शायद-
शायद क्या, निःसंदेह
मेरा हास्य,मेरी मनःस्थिति से परे
एक अजीब शक्ल ले लेता था !
....गुस्सा करनेवालों ने
कभी सोचा ही नहीं
ऐसा होता क्यूँ है !
वे मुझे साइकिक समझते थे
अपनी बौद्धिकता के आगे.........
और मैं,
तब भी निरंतर हंसती जाती
शायद-
शायद क्या,निःसंदेह
मुझे अपने दिमागी सन्नाटे की
खामोश रुदन से
डर लगता था...
आज भी लगता है
और आज भी मैं-
अजीबोगरीब बातें करती हूँ,
सही पहचाना...
बिल्कुल साइकिक की तरह !

30 टिप्‍पणियां:

  1. kabhi kabhi kuch situations ko hamari reaction alag hoti hai,hamare soch ke pare,aur hum gum mein bhi haste hai dewano se,sach bilkul ek psychic ki tarah.mann ki dasha bhi hoti hai,gehre bhav liye,sunder rachana badhai.

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  2. आपकी इस अभिव्यक्ति ने निशब्द कर दिया है बहुत देर सोचती रही हूँ मुझे लगता है ये हर नारी के मन की ही व्यथा है । नारी के हंसने मे ही तो सारा दर्द छिपा होता है वर्ना रो कर बह जाता है । मार्मिक अभिव्यक्ति है ---- मुझे अपने दिमागी सन्नटे की खामोश रुदन से डर लगता है दिल को छू गयी शुभकामनायें

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  3. bahut achee kavita kahee hai aap kee rachanaon men aap ka zehan jhalakta hai padh ek bahut achha lagata hai

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  4. जब कभी भावनात्मक कष्ट सीमा से अधिक हो जाता है,ऐसी ही स्थिति उत्पन्न होती है ........
    शायद ये "साइकिक" होना नहीं है, शायद क्यों ..? निःसंदेह साइकिक वे हैं जो हास्य में छिपी पीड़ा का बोध नहीं कर पाते हैं, और बुद्धिमत्ता पर उन्हें दर्प है ............
    कुछ अलग से भाव लिए ये कविता कुछ दिल के करीब लगी .....
    प्रणाम के साथ शुभकामनाएं .........

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  5. बहुत सुंदर कविता है। बधाई। खामोश रूदन से लगे डर को बड़ी खूबसूरती से बयान किया है आपने।

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  6. मुझे अपने दिमागी सन्नाटे की
    खामोश रुदन से
    डर लगता था...
    ye lines dil tak gayee...
    magar is rachna me mujhe apke wali bat nahi nazar ayee..mafi chaungi ...isne mujeh bahut prabhavit nahi kiya..

    love u

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  7. यह मनःस्थिति एक नारी की भी हो सकती है,जो अनेक तनावों को झेलते हुए अंतर्विरोधों के बीच जीती है.

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  8. साइकिक मनोस्थिति से हर कोई गुजरता है रश्मि जी, रोज ,कई बार... जीवन का यही तो खेल-तमाशा है ...आपने बखूबी उकेर दिया है इन पंक्तियों में...

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  9. आपके जैसे So Called साइकिक की खासी जरुरत आन पड़ी है समाज को, अन्यथा आज के भाग - दौड़ की जिंदगी में किसी सार्थक विषय पर खुद से बात करने का समय कितने sound minded लोग निकाल पाते है |

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  10. रश्मिप्रभा जी,

    निस्संदेह, यह रचना एक नारी की पूर्ण अभिव्यक्ती है। बड़ा ही अजीबो-गरीब हालात हैं कि एक और नारी को आँसुओं की प्रतिमूर्ती कहा जाता है और यदि वह सारे पूर्वाग्रहों को त्याग यदि हंसी अपने भीतर पैदा करें तो साईकिक करा़र दी जाती है।

    यह दोहरी मानसिकता ही समाज के उत्थान में नारी की भूमिका/योगदान को नकारता है जबकि यह बिना नारी के संभव ही नही है।

    बहुत ही सशक्त रचना।

    सादर,


    मुकेश कुमार तिवारी

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  11. sant sharma ji ki baat se sehmat hoon...
    ...aur unki "so called" ko bold italic underline karna chahoonga kyunki aap hain nahi apne ko keh rahi hain...
    vastivikta to ye hai ki:
    main duniya ko aur duniya mujhe pagal kehti rahi !!

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  12. rashmi जी.......... आपने मन में uthne waale dwand को बहुत ही मार्मिक tarike से kaagaz पर उतार दिया है........ हर मन में kaheen n kaheen कुछ n कुछ chipa होता है....... जो किसी न किसी रूप में baahar aa ही जाता है....... लाजवाब लिखा है, shashakt abivyakti है.........

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  13. हर समझदार संवेदन शील प्राणी को लोग साईकिक ही समझते हैं...आप भी कोई अपवाद नहीं...बहुत ही अच्छी रचना है ये आपकी रश्मि जी...बधाई...
    नीरज

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  14. अजीबो गरीब बातें करती आपकी is कविता ne निःसंदेह दिमागी सन्नाटे को झकझोर कर रख दिया .....!!

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  15. शायद क्या, निसंदेह...

    आप बार-बार अचंभित करती हैं मैम अपनी अद्‍भुत शैली और भाव से...कुछ इतर के शब्द भी कितनी सहजता से बैठ गये हैं कविता में।
    just beautiful

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  16. बहुत सुंदर भाव और अभिव्यक्ति के साथ लिखी हुई आपकी ये ख़ूबसूरत रचना काबिले तारीफ है!

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  17. खामोश रुदन से आपने बोलती ही बंद कर दी......
    बेहतरीन रचना....

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  18. yeh kavita dil ko chhoo gayi.... aise laga ki is kavita mein main bhi kahin na kahin hoon.......

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  19. मर्म को बेधती हुई.....बहुत सुंदर रचना .....बधाई आपको रश्मि जी....


    पीङा में गाती हूँ मैं
    दूर ना जाने देश कौन से
    स्वयं चली जाती हूँ मैं ।

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  20. आदरणीय रश्मि जी ,
    एक स्त्री मन की व्यथा को अपने बहुत गहराई से अभिव्यक्ति दी है..
    बढिया रचना .
    पूनम

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  21. आदरणीय रश्मि जी ,
    एक स्त्री मन की व्यथा को अपने बहुत गहराई से अभिव्यक्ति दी है..
    बढिया रचना .
    पूनम

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  22. kya kahe ham samajh nahi paa rahe hai...but han ye hota hai....lekin us manskit awastha ko apne shabdo ke madhyam se chitrit kar diya ye vichitra hai..........female psychology ki gahari samajh affection towards female ...... bahut bhaya hamhe to

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  23. rashmi ji,
    sabse pahale kshamaprarthi hun...bahut der se rachna padhi...aisi man:sthti har ek ki zindagi men aati hai jisako aapane sateek shabdon men dhaala hai...gahare ehsaason ko liye huye khoobsurat rachna...badhai

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