28 अगस्त, 2010

मैं कहाँ हूँ !!!


मैं हमेशा खो जाती हूँ
फिर ढूंढती हूँ खुद को
सबके दरवाज़े खटखटाती हूँ
पर कहीं नहीं मिलती...
दम घुटता तो है
पर तलाश जारी है अपनी

कभी-कभी तब यूँ ही
बचपन की कहानी याद आती है
'अकेले कहीं मत जाना
वरना बूढ़ा बाबा
अपनी झोली में पकड़ कर ले जायेगा ...'
सोचती हूँ -
कब निकली बाहर !
कब ले गया बूढ़ा बाबा मुझे !
........
हँसते हो ?
क्या कहा .
ये मेरा भ्रम है , बुद्धू हूँ मैं ?
अगर सच में ये मेरा भ्रम है
तो मैं कहाँ हूँ
कहाँ हूँ !!!

37 टिप्‍पणियां:

  1. बचपन का डर डरते -डरते भी सच ही हुआ ना आखिर ...
    तो फिर डरना छोड़ दे ..?

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  2. बचपन में मन में बैठाया डर ..और आज की स्थति को आपने शब्द दे नज़्म कह दी है ...बहुत सुन्दर ..

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  3. शायद आप बाहर ही निकल गईं। इसीलिए अब यह खोज हो रही है। दरवाजे शायद बाहर के नहीं अंदर के खटखटाने होंगे। तभी मैं की खोज पूरी होगी।

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  4. ममा कविता बहुत अच्छी लगी.... मैं बाहर था ना ममा...इसलिए आपकी पिछली पोस्टों पर नहीं आ पाया....

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  5. मैं हमेशा खो जाती हूँ फिर ढूंढती हूँ खुद को सबके दरवाज़े खटखटाती हूँ पर कहीं नहीं मिलती.दम घुटता तो है पर तलाश जारी है

    गहरे शब्द भाव... बढ़िया रचना... आभार

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  6. Haan jholi BABA hua karte they undino...jo bachcho ko jholi mein utha le jaya karte the.....ab sophisticated BABA's market mein available hain invisible jholi ke saath....so darna to banta hain...Very cute lines :-)

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  7. मैं हमेशा खो जाती हूँ
    फिर ढूंढती हूँ खुद को
    सबके दरवाज़े खटखटाती हूँ
    पर कहीं नहीं मिलती...
    दम घुटता तो है
    पर तलाश जारी है अपनी'

    भीतर ढूँढा ? वहीं कहीं है वो,क्यों खटखटाती है हर दर को.
    कोई बुढा बाबा नही ले जा सकता उसे.किसी की झोली इतनी बड़ी नही.खुद से डरी हुई,अपने से भागती है वो ? वो ना कायर है ना डरपोक.
    बस बहुत सवाल करती है खुद से और फिर ढूढने लगती है अपनी ही कोई भूल जिससे सजा दे सके वो खुद अपने आपको?
    सही करती है ?
    फिर भी एक खूबसूरत सवाल ..जहाँ से तपस्वियों की साधना या तप का मार्ग प्रारम्भ होता है,मेरी प्यारी सन्यासिनी-योद्धा! जीतो.

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  8. सत्य है, खुद की तलाश में उम्र गुजर जाती है....
    लोग हंसते भी हैं क्योंकि नहीं जानते कि आत्मा कहाँ है.....
    आध्यात्म से सुवासित रचना....

    शुभकामनाएं....

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  9. ढूंढ़ रहा हूँ...गुम हूँ, गुमशुदा नहीं :)

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  10. सोचती हूँ -
    कब निकली बाहर !
    कब ले गया बूढ़ा बाबा मुझे

    वाह...तीन पंक्तियों में सारी व्यथा लिख दी आपने...कमाल की रचना...बधाई...
    नीरज

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  11. akeli baher mat jana verna buda baba le jayega yeh kuchh nahi balkiladkiyo ko suru se hi asurakchha ka ehsas kerana tha jisese ve jindagi bhar pidit rah sake .isiliye baher na nikalne per bhi vah apne astitva se bekhaber ho jati hai

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  12. हँसते हो ?
    क्या कहा .
    ये मेरा भ्रम है , बुद्धू हूँ मैं ?
    अगर सच में ये मेरा भ्रम है
    तो मैं कहाँ हूँ
    कहाँ हूँ !!!
    bahut hi badhiyaa .

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  13. मैं हमेशा खो जाती हूँ
    फिर ढूंढती हूँ खुद को ...
    तलाश जारी है अपनी... KHUD KO DHUNDHNE MEIN HI UMR NIKAL GAI LEKIN KHUD KO PAHCHAN HI NAHI PAAYE ISLIYE TALASH JAARI HI RAHEGI... GAHRE BHAV ....

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  14. मैं ब्लॉग पढने वाले आप सारे लोगों से एक अनुरोध करना चाहता हूँ.
    मान के चलता हूँ कि आप सब ने अनुमति भी दे दी है.
    कृपया जो भी लिखा है उसे एक बार पढ़ के तुरंत अपने विचार न बनायें और व्यक्त तो बिलकुल न करें.
    भावनाओं को बहुत सोच समझ कर हम सभी लिखते हैं,
    सच कहूँ तो लिखने से पहले वह सारा कुछ बहुत समय तक हमारे अन्दर उमड़ता - घुमड़ता है.

    मैंने खुद के साथ भी इसे पाया है और इसलिए अब आप सब कि रचनाएँ कम से कम दो बार तो अवश्य पढता हूँ,
    फिर अगर कुछ खास लिखने लायक समझ आता है तभी लिखता हूँ वर्ना नहीं लिखना बेहतर समझता हूँ.

    रश्मि जी ने जो लिखा है उसे पढ़ के एक अजीब एहसास हुआ.
    अपने खोये होने का तो हुआ ही, फिर ऐसा लगा जैसे हम सब ही तो खो गए हैं.
    रश्मि जी खुशकिश्मत हैं, उन्हें इसका एहसास हो गया है.
    पर हम में से कई ऐसे हैं जिन्हें अपने खोये होने का एहसास ही नहीं है.
    क्यूंकि शरीर को ही हमने अपना अस्तित्व समझ लिया है, इसलिए खोये होने का एहसास हमे होने नहीं पता.

    रश्मि जी का इशारा मैं समझता हूँ कहीं और ही है -
    "मैं हमेशा खो जाती हूँ
    फिर ढूंढती हूँ खुद को...."

    खुद को ढूंढने का मतलब, शरीर तो बिलकुल ही नहीं है,
    शायद हम दुबारा पढ़े तो उनका इशारा किस ओर है, समझना आसान हो जाये.

    बुद्ध, यशोधरा और अपने बेटे राहुल को सोता छोड़ "खुद" को ढूंढने ही तो निकले थे.

    क्षमा करेंगे बहुत अपनापन और बेबाकी से अपनी बात लिख रहा हूँ.
    रश्मि जी या आपकी या मेरी बात नहीं कर रहा,
    हममे से जो भी ब्लॉग पे लिखता, वो चाहता है कोई उसे पढ़े-समझे,
    और उनकी बातें, लोगों तक सही मायने में पहुचे, तभी उन्हें उनके लिखने कि सार्थकता महसूस होती है,
    ऐसा मैं मानता हूँ.

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  15. हँसते हो ?
    क्या कहा .
    ये मेरा भ्रम है , बुद्धू हूँ मैं ?
    अगर सच में ये मेरा भ्रम है
    तो मैं कहाँ हूँ
    कहाँ हूँ !!!

    रश्मि जी,
    बहुत ही सुंदर कविता अंतर्मन से लिखी गयी बहुत बहुत बधाई.

    सुमन जी से एकदम सहमत हूँ अगर कोई सार्थक टिप्पणी मिलती है तो कविता लिखना भी सार्थक लगता है.

    लेकिन सच ये भी है की हम सिर्फ टिप्पणी के लिए ही तो नहीं लिखते हैं.

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  16. खुद को ढूँढ पाना बहुत मुश्किल से होता है...हमारे पास अपने को ही ढूंढ पाने का वक्त नहीं है.

    सुंदर अभिव्यक्ति.

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  17. पता नहीं कितने बचपन बूढ़ा बाबा ले गया है।

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  18. मैं हमेशा खो जाती हूँ
    फिर ढूंढती हूँ खुद को
    सबके दरवाज़े खटखटाती हूँ
    पर कहीं नहीं मिलती...
    दम घुटता तो है
    पर तलाश जारी है अपनी
    बहुत सुन्दर रश्मि जी. स्त्री की ये तलाश तो बरसों से जारी है...

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  19. ..तो मैं कहाँ हूँ
    ..सुंदर कविता। अपने बहाने सभी की व्यथा कह दी आपने।..बधाई।

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  20. बहुत सुन्दर...| स्वयं की तलाश अभी जारी है|

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  21. स्वंय को ढूँढने की छटपटाहट आज हर इंसान की चाहत है मगर इसे बाहर खोजने की अपेक्षा अन्दर की तरफ़ खोज शुरु की जाये तभी मंज़िल तक पहुँचाजा सकता है।

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  22. मैं हमेशा खो जाती हूँ
    फिर ढूंढती हूँ खुद को
    सबके दरवाज़े खटखटाती हूँ
    पर कहीं नहीं मिलती...
    दम घुटता तो है
    पर तलाश जारी है अपनी
    .....talash kabhi khatm kahan hoti... sach mein kahan kahan nahi tashte hain ham apne aap ko..
    ...adhyatm ka darshan karti sundar rachna

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  23. didi pranam !
    ek achche antar dwand ko aap ne obhara hai, ek nayi disha ki aur .
    saadar

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  24. 'अकेले कहीं मत जाना
    वरना बूढ़ा बाबा
    अपनी झोली में पकड़ कर ले जायेगा ...'बहुत खूब...

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  25. बचपन के बीते दिनों के अन्तर्मन में झांकती सहज रचना---। पूनम

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  26. एक बहुत ही निर्दोष रचना...सच ऐसा लगता है...अपना वजूद ही कहीं खो गया है...और तलाश जारी है.

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  27. बहुत ख़ूबसूरत और शानदार रचना! बधाई!

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  28. "मैं हमेशा खो जाती हूँ
    फिर ढूंढती हूँ खुद को
    सबके दरवाज़े खटखटाती हूँ
    पर कहीं नहीं मिलती..."
    "हमेशा खो जाना" और "दरवाज़े खटखटाकर"स्वयं की तलाश शायद उन रिश्तों
    की खोज से जुडी है जो आज तेजी से ग़ुम होती जा रही है.एक संवेदनशील मन इस सच को शायद ही स्वीकार कर पाए.
    बेहद सुंदर......

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  29. बहुत खूब .. मानसिक स्थिति कई बार ऐसी हो जाती है .. खुद को पाना मुश्किल हो जाता है .. पर समय सब ठीक कर देता है ... गहरे ज़ज्बात है इस रचना में ...

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  30. बहुत अच्छी रचना है रश्मि जी...
    खुद की तलाश में जीवन ही गुज़र जाता है...
    एक शायर ने कहा भी है-
    अपने आप से क्या मिल पाते ऐसे भीडं भड़क्के में
    उम्र इसी उम्मीद में गुज़री अब तंहाई होती है.

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  31. बहुत सुंदर रचना.... अंतिम पंक्तियों ने मन मोह लिया...

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  32. rashmi ji,
    in chhoti 3 panktiyon mein pura jiwan likh diya aapne,
    सोचती हूँ -
    कब निकली बाहर !
    कब ले गया बूढ़ा बाबा मुझे !
    nihshabd hun, sabka ek saa hin sach...
    shubhkaamnaayen.

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