तुम्हें जन्म दिया माँ ने सिखाया समय ने
तराशा खुद को तुमने
तेज दिया ईश्वर ने
यूँ कहो अपना प्रतिनिधि बनाया ...
इसलिए नहीं कि तुम सिर्फ निर्माण करो
अनचाहे उग आए घासों को हटाना
यानि नेगेटिविटी को मारना भी तुम्हारे हाथों में दिया ...
'निंदक नियरे राखिये'
क्रिमिनल सोचवालों को नहीं
....
उसकी पूरी ज़मीन काँटों से भरी होती है
उसे सींचना
तुम्हारा बड़प्पन नहीं
अन्याय को बढ़ावा देना है !
तुमको गुरु ने जो दिया
लड़कर, सहेजकर ....
उसमें फिर से गिद्ध दृष्टि ?
अपनी ताकत को अपने सुकून में लगाओ
एक और लड़ाई में नहीं
तुम्हारे पदचिन्ह तभी गहरे होंगे ...
जब तुम सत्य का साथ दोगे
तो इन चिन्हों के अनुयायी होंगे
ये बात और है कि संख्या कम होगी
क्योंकि सत्य की राह को
कम लोग ही अख्तियार करते हैं !
क्या गुरु के इस वचन में सारे अर्थ नहीं निहित हैं ---
'कृष्ण को पाना है
तो अर्जुन बनो
राधा बनो
सुदामा बनो '...
कृष्ण दुर्योधन के सारथी नहीं बने
दुर्योधन ने चाहा भी नहीं ...
सत्य जानते हुए भी पितामह
कर्तव्य की दुहाई देकर कौरवों के साथ रहे
तो परिणाम ???
कर्तव्य और अधिकार का एक व्यापक अर्थ है
दोनों अकेले कभी नहीं चलते
ना एकतरफा कर्तव्य होता है
ना अधिकार !
तुम स्वयं वह आधार हो
जिससे अमरनाथ का शिवलिंग बनता है
स्मरण करो---
एक साल यह शिवलिंग नहीं बना ... क्यूँ ?
अन्याय के दृश्यों ने बर्फ को भी
मूक और अपाहिज बना दिया !
तुम अपने द्वन्द से
अनचाहे विषबेलों को सींच रहे हो
उनको उखाड़ोगे नहीं
तो ईश्वर की इच्छा ही अधूरी होगी ...
कुरुक्षेत्र के मैदान में
सब अपने ही औंधे पड़े थे
पर न्याय तो यही था ...
कुंती को युद्धिष्ठिर ने जो शाप दिया
वही सही था ...
कैकेयी को यदि भरत ने नहीं गलत कहा होता
तो कैकेयी को अपनी गलती का आभास न होता !
भरत ने उनका त्याग किया ...
कर्ण ने अपने तिरस्कार को याद रखा
... ५ पुत्रों का वरदान देकर
अपनी मृत्यु का दान दिया
पर दुर्योधन की मित्रता का मान रखा
ईश्वर ने सत्य का स्वरुप हर बार दिखाया है
तो फिर उलझन कैसी ?