तुम्हारी सोच मुझसे नहीं मिलती
तो तुम बदल गए
तुम्हारी मासूमियत खो गई
तुम बनावटी हो गए
तुमने अपने वक़्त को सिर्फ अपने लिए मोड़ दिया ...
.............
मेरी सोच तुमसे नहीं मिलती
पर मैं तुम्हें अपनी सोच बताती गई
तुम्हारी सोच सुनती गई
.... आँधियाँ , तूफ़ान
और बदलते लोग अपनी सोच के साथ ...
मैं इनके बीच अपनी मासूमियत का वजूद जीती गई !
.....
कई बार दिल में आया - मैं इसकी तरह बन जाऊँ
उसकी तरह बन जाऊँ
तुम्हारी तरह बन जाऊँ
हो जाऊँ खामोश तुमसबों के बीच !
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...... इसकी उसकी बात अलग थी / है
मेरी ख़ामोशी से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता
मैं उनके फर्क की चिंता भी नहीं करती ...
..... क्योंकि इस मुकाम तक लाने में वे तत्पर थे !
सच है ये कि मैं बनी नहीं
बनाई गई -
कभी इसने मुझे बेनाम किया कभी उसने
...... अब तुम !
.....
मुझे न घर मिला
न कभी मैं भयमुक्त हुई
पर कभी प्रत्यक्ष , कभी अदृश्य
मैं घर के सुकून में रही
डरते हुए निडर रही
.......... क्यूँ ?
क्योंकि विश्वास था अपने क़दमों पर
जो कभी स्वार्थी नहीं हुए
न ही उद्देश्यहीन उठे
...........
मैंने कुछ मकसद उठाये
या प्रभु ने उनके लिए हवाओं के रुख बदले
नहीं कह सकती -
पर बाह्य , आंतरिक चोट के बावजूद
मुझे प्रभु पर विश्वास रहा
और मैं डगमगाकर भी स्थिर होती गई
.... क्यूँ ?
क्योंकि मुझे हमेशा लगा
कि मकसदों को पूरा करने के लिए
महाभारत की ज़रूरत नहीं होती -
यूँ भी
महाभारत के बाद शेष रहेगा क्या !
...........
तो समय से अधिक प्रतीक्षा की
फिर स्वीकारा
उद्विग्नता रही हो या सन्नाटा
मैंने अपनी मुस्कुराहट को जिंदा रखा
नासमझ हरकतों को जिंदा रखा
क्योंकि ठोस रास्तों के निर्माण में यही काम आते हैं ...!
....
गलत करना
और गलत साबित होने में बड़ा फर्क होता है
मैं हमेशा बड़े फर्क से गुजरती गई
.... पर निस्तैल होकर भी
हौसलों की आग से प्रकाशित किया उन रास्तों को
जहाँ मेरे मकसदों की ईंटें थीं !
......
आज तुम दरकने के एहसास में हो
और वह हर दृश्य उपस्थित कर रहे
जो औरों ने किया
.... कितनी हास्यास्पद बात है न
टुकड़ों में विभक्त खड़े पिलर के नव निर्माण से अलग
तुमने उस पिलर पर टेक लगाना छोड़ दिया
जो टूटकर भी कभी गिरा नहीं - तुम्हारे लिए !
..... अभी भी गिरेगा नहीं
क्योंकि टेक लगाए कोई है
..... लेकिन ...
वह पिलर
जो हर जगह सोच के माध्यम से
कभी हिमालय बना
कभी देवालय
कभी कवच ...... उसकी नियति क्या यही होनी चाहिए थी ?
दूसरों को सजा देकर क्या ?...
जब हम आपस के रंग भूल जाएँ !!!
......
तुमसे मेरी सोच नहीं मिलती
भले ही मैं मरती जाऊँ अन्दर से
पर -
सही रास्ता बताती रहूंगी
तुम चलो न चलो
अपने उत्तरदायित्व से भटकूंगी नहीं
............माना फर्क है हमारी सोच में
पर एक बिंदु पर
तुम्हें इस फर्क का औचित्य मालूम होगा
जब भी तेज हवाएँ चलेंगी
तुम्हें बरगद आदर्श लगेगा
और एक दिन तुम भी वही बनोगे
क्योंकि
अनुभवों की पैनी धार ही
बरगद को खड़ा करती है
चिड़िया चोंच मारे
पथिक उठकर चल दें
अस्तित्व बरगद का
कभी मिटता नहीं है ....