बस कल्पनाओं के क्षितिज को
भ्रम से हकीकत बनाता गया ...
क्षितिज के मुहाने पर मिली एक परी
दिए मुझे अपने पंख
और कहा - जाओ आकाश छू लो...
मैं उड़ी-
लहराती,बलखाती,उंचाई से थोड़ी घबराती
कुछ दूर से ही कहा आकाश को -
तुम्हारी विशालता को मैं क्या छुऊं
तुम्हारे निकट तक आना ही मेरा सौभाग्य है
आकाश ने सितारों जैसे हाथ बढ़ाये
रखा माथे पर आशीष भरा ताज
और कहा-जो तुमसे झुककर मिले,वही है ऊँचा
मूलमंत्र आकाश का ले
लौटी क्षितिज के मुहाने
लौटा दिए परी को उसके पंख
और नतमस्तक हुई उसके आगे
क्योंकि आकाश के समीप तक जाना
मेरे लिए कहाँ था संभव !
विनम्रता का मंत्र लिए मिलती गई सबसे
कुछ अपनी कही
कुछ उसकी सुनी
सिक्के के कई पहलू संजोये ...
इस यात्रा में मिला एक अजनबी
भूख से व्याकुल,हाथ फैलाये
चेहरे पर क्षोभ
आँखों में विवशता !
मैं नहीं थी अलादीन का चिराग
कि बदल देती उसका संसार
मैंने अपनी रोटी को किया आधा
दिया उसके हाथ में
उसकी तीव्रता उस रोटी को खाने की
और थरथराता शरीर !
मैंने जाना- मांगने की मजबूरी क्या होती है
आआआआआअह ...
विवशता में फैले हाथ भिखारी सुनने को विवश होते हैं !
मैं अलादीन से मिली -
कब कहाँ ... यह तो सबको पता है
क्योंकि कभी न कभी
किसी न किसी तरह
हर कोई उससे मिलता है
बस तजुर्बा अपना अपना होता है
तो मेरा भी अपना तजुर्बा हुआ
चिराग का जिन्न रोता हुआ मिला
रोते हुए कह रहा था जिन्न अलादीन से-
मेरे आका,
लोगों को खुश करने में
आपने सोचा ही नहीं
कि मैं जो भी लाता हूँ
इसी दुनिया से लाता हूँ
इसकी टोपी उसके सर करता हूँ
अब सब मेरे पीछे पड़े हैं
मेरे सौ टुकड़े करने की चाह में हैं ....
बेचारा जिन्न....
उसके सारे जादू उसकी आँखों से बह रहे थे
मैंने सोचा -
और मैं खामखाह चिराग को सपना रही थी !
खैर पास में था कल्पनाओं का पुष्पक विमान ...
सोचा उस लड़की से मिलूं
जिसकी आँखों में एक छोटा सा सपना था
घर,चूड़ियों की खनक ,नज़ाकत
प्यार को लेकर खुद पर ऐतबार ...
ढूंढते ढूंढते मिली उसकी कब्र
मिट्टी में लुप्त चेहरे को सहलाया
उसकी सोच को गले लगाया
चलने को हुई
तो वहाँ उगे तिनके ने ऊँगली थामी
कहा-
घर पैसे से बनता है
प्यार की पूजा के आगे
पैसा सर्वोपरि होता है
उससे सारी खरीदफरोख्त होती है
प्यार अपनी ताकत लिए
खुद में दफन होता जाता है
पैसे से खुशियाँ मिले न मिले
वहम का
खुद की बद्शाहियत का
विकृत सुकून ज़रूर मिलता है
और उस सुकून में प्यार-
तिल तिलकर एक अनजानी मौत मरता है
.....
अपने यायावर मन को थामे मैं दौड़ी
जानी पहचानी सड़क की तलाश में
झाड़ियों में उलझी
खरोंच आई
खून निकला
तो जाना -
कल्पना से यथार्थ की धरती पर एक कवि
क्यूँ नहीं आना चाहता
!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
मूर्तिकार
रचनाकार
कलाकार
सृष्टिकर्ता
भाग्यविधाता,...कहीं न कहीं है बाध्य
रह जाती है सूक्ष्म कमी
और वहीँ से आरम्भ होता है शब्दों के यज्ञ में भी एक मौन
और कल्पना में वार्तालाप ...