मैं न यशोदा न देवकी
मैं न राधा न रुक्मिणी न मीरा
नहीं मैं सुदामा न कृष्ण न राम
न अहिल्या न उर्मिला न सावित्री
.......... मैं कर्ण भी नहीं
नहीं किसी की सारथी
न पितामह न एकलव्य न बुद्ध
नहीं हूँ प्रहलाद ना गंगा न भगीरथ
पर इनके स्पर्श से बनी मैं कुछ तो हूँ
नहीं -
तो फिर क्यूँ लहराता है बोलता हुआ मौन मेरे भीतर
क्यूँ मैं कुम्हार की तरह अपनी ही मिटटी से
हर दिन ये सारे मूरत गढ़ती हूँ
क्यूँ मेरे भीतर ॐ की ध्वनि गूंजती है
अजान के स्वर निःसृत होते हैं
क्यूँ मैं अहर्निश अखंड दीप सी प्रोज्ज्वलित हूँ
क्यूँ .............. एक पदचाप मेरे साथ होती है
क्यूँ एक परछाईं मुझमें तरंगित होती है
..........
मैं नहीं कहती कि पत्थर में भगवान् है
पर ........... प्राणप्रतिष्ठा करनेवाली शक्ति
खुद को - कहीं भी कभी भी
प्रतिष्ठित कर सकती है न ???
विश्वास चाहे व्यक्ति में हो या शक्ति में दृढ़ होना चाहिए ... उसी विश्वास जैसी हैं आप भी
जवाब देंहटाएंऔर यह अभिव्यक्ति भी
सादर
अधिकतर आपकी कविताओं पर टिपण्णी नहीं करता, पढ़कर चुपचाप चला जाता हूँ... कुछ कहना मुझे सूरज को दिया दिखाने सामान लगता है... और केवल एक-दो पंक्ति की टिप्पणी में तारीफ क्या करूँ...
जवाब देंहटाएंखैर इस कविता में आपने "प्रोज्ज्वलित" शब्द का प्रयोग किया है... मुझे "प्रज्ज्वलित"शब्द का ध्यान है, सही हिज्जे क्या है.. कृपया मार्गदर्शन करें...
कविता हर बार की ही तरह बेहतरीन है... :)
एक लेख मै भी लिखी थी कभी .. http://gatyatmakchintan.blogspot.in/2010/06/blog-post_26.html
जवाब देंहटाएंमन तो कितना चाहे, बनना अपने से भी बड़ा,
जवाब देंहटाएंराह रोक पर भाग्य खड़ा।
बेहतरीन
जवाब देंहटाएंएहसास और विस्वाश यही तो पत्थर में प्राण प्रतिष्ठा करता है. एहसास का सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंLatest post aapke intejar me
होना तो यही चाहिए कि प्राण-प्रतिष्ठा वाली शक्ति खुद को कहीं भी प्रतिष्ठापित कर सके | लेकिन समाज में ज्यादातर पत्थरों में ही प्राणों की प्रतिष्ठा होती है |
जवाब देंहटाएंसादर
कुछ तो है ...बस कुछ तो है .... ??
जवाब देंहटाएंप्राणप्रतिष्ठा करनेवाली शक्ति
खुद को - कहीं भी कभी भी
प्रतिष्ठित कर सकती है न !!
मैं नहीं कहती कि पत्थर में भगवान् है
जवाब देंहटाएंपर ........... प्राणप्रतिष्ठा करनेवाली शक्ति
खुद को - कहीं भी कभी भी
प्रतिष्ठित कर सकती है न ???
बहुत सुंदर रचना
सुंदर भाव
बढिया प्रस्तुति
कुछ तो है ....वो है अहसासों को महसूस करने की क्षमता !!!
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें!
मैं नहीं कहती कि पत्थर में भगवान् है
जवाब देंहटाएंपर ........... प्राणप्रतिष्ठा करनेवाली शक्ति
खुद को - कहीं भी कभी भी
प्रतिष्ठित कर सकती है न ???
प्रबल आत्म विश्वास दर्शाती बहुत सुंदर रचना दी ....
प्राणप्रतिष्ठा करनेवाली शक्ति
जवाब देंहटाएंखुद को - कहीं भी कभी भी
प्रतिष्ठित कर सकती है न ???
बिल्कुल कर सकती है...दृढ़इच्छाशक्ति ही मार्ग प्रशस्त करती है|
होता तो यही है, खुद को प्रतिष्ठित करते जाएइए..
जवाब देंहटाएंहोता तो यही है, खुद को प्रतिष्ठित करते जाएइए..
जवाब देंहटाएंमैं नहीं कहती कि पत्थर में भगवान् है
जवाब देंहटाएंपर ........... प्राणप्रतिष्ठा करनेवाली शक्ति
खुद को - कहीं भी कभी भी
प्रतिष्ठित कर सकती है न ???viswas ki adhbhut abhivaykti....
विश्वास जरुरी है..सुन्दर रचना..
जवाब देंहटाएंमैं नहीं कहती कि पत्थर में भगवान् है
जवाब देंहटाएंपर,,,,प्राणप्रतिष्ठा करनेवाली शक्ति वाह,,,
बहुत उम्दा,आत्मविस्वास से भरी रचना....
recent post: रूप संवारा नहीं,,,
आपकी कवितायें मात्र अभिव्यक्ति नहीं किसी निश्चित भावना की.. आपकी कवितायें जन्म देती हैं एक सोच को, एक चिंतन को.. इसे साहित्य के उत्तर्दायोत्वा बोध का परिचायक मानता हूँ मैं.. हर बार एक सावाल छोड़ जाती हैं आप, सोचने को!! जिसका जवाब सरलता से संभव नहीं, वैचारिक मंथन से ही संभव है!!
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी रचना दीदी!!
रश्मि जी,
जवाब देंहटाएंबस यही आत्मानुभूति साधारण को विशेष बना देती है...जो आप हैं|
साभार!
आत्मविश्वास का होना बहुत जरुरी है ,आपकी रचनायें इसी आत्मविश्वास को जन्म देती है
जवाब देंहटाएंएसा मैं महसूस करता हूँ फिर विषय कोई भी हो-----
बहुत भावपूर्ण रचना
आत्मविश्वास का होना बहुत जरुरी है ,आपकी रचनायें इसी आत्मविश्वास को जन्म देती है
जवाब देंहटाएंएसा मैं महसूस करता हूँ फिर विषय कोई भी हो-----
बहुत भावपूर्ण रचना
ऊपर सलिल अंकल की टिप्पणी से शतशः सहमत हूँ। एक गूढ़ प्रश्न है अध्यात्म का, जिसे इतने सरल ढंग से संस्कृत की बजाय हिंदी में, वो भी पद्य रूप में प्रस्तुत करना स्वयं ही नमनीय है। उपनिषद् (श्वेतास्वतारोप्निषद) में कुछ ऐसी ही पंक्तियाँ है .. "अजायमानो बहुधा विजायते", और फिर गीता में भी तो यही है कि 'ब्रह्मार्पणं ब्रम्ह, हविर्ब्रम्हौ ब्रम्हानाहुतम ..' जो मूर्तियाँ गढ़ रहा है, वो उस मूर्ती के अन्दर छुपे ईश्वर से भिन्न कहाँ है!
जवाब देंहटाएंसादर
मधुरेश
मैं हूँ उसी परमात्मा का अंश ...यह सोच आत्मविश्वास से लबरेज़ कर देती है !
जवाब देंहटाएंआत्मविश्वास से भरपूर अभिव्यक्ति ...
जवाब देंहटाएंतो फिर क्यूँ लहराता है बोलता हुआ मौन मेरे भीतर.
जवाब देंहटाएंकितनी खूबसूरत ये पंक्ति.
उम्दा पोस्ट
जवाब देंहटाएंतो फिर क्यूँ लहराता है बोलता हुआ मौन मेरे भीतर
क्यूँ मैं कुम्हार की तरह अपनी ही मिटटी से
हर दिन ये सारे मूरत गढ़ती हूँ
क्यूँ मेरे भीतर ॐ की ध्वनि गूंजती है
विश्वास की शक्ति बहुत बलवान है ...
जवाब देंहटाएंजो चाहे इसी से हो सकता है ... गहरी बात ...
बहुत ही गहन पोस्ट ............बहुत अरसे से आपके अपने ब्व्लोग पर दर्शन नहीं हुए रश्मि जी।
जवाब देंहटाएंखुद को खुद से गढ़ लेने की एक कोशिश ...बहुत खूब
जवाब देंहटाएंमैं नहीं कहती कि पत्थर में भगवान् है
जवाब देंहटाएंपर ........... प्राणप्रतिष्ठा करनेवाली शक्ति
खुद को - कहीं भी कभी भी
प्रतिष्ठित कर सकती है न ???
बहुत सुन्दर रचना ...देर हो गई आने में !
रहस्य समेटे हुए बहुत सुन्दर बात..
जवाब देंहटाएंतेरे कलापूर्ण हाथों से पाहन भी ईस्वर कहलाया...मुऱे अपने पिताजी की एक कविता याद आती है जो उन्होंने मानव शीर्षक से लिखी थी । वास्तव में मानव की कला व संवेदना ही है जो जीवन है स्पन्दन है गति है और सृजन है । आपकी कविता कितना कुछ कहती है रश्मि जी
जवाब देंहटाएंबेहद गहन अभिव्यक्ति !!!
जवाब देंहटाएंयह वह प्रतिष्ठा है जिसे प्रतिश्ठित करने के बाद विसर्जित भी करना पड़ता है।
जवाब देंहटाएंबेहद सुन्दर
जवाब देंहटाएंEK ACHCHHEE KAVITA PADH KAR
जवाब देंहटाएंAANANDIT HO GAYAA HOON .
मैं नहीं कहती कि पत्थर में भगवान् है
जवाब देंहटाएंपर ........... प्राणप्रतिष्ठा करनेवाली शक्ति
खुद को - कहीं भी कभी भी
प्रतिष्ठित कर सकती है न ???
कविता के भाव स्पंदित कर्गाये. बहुत सुंदर प्रस्तुति.
एक सुन्दर सत्य का बोध कराती .....अनुपम रचना ....:)
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