यह दामिनी है
वह अरुणा थी
तब भी एक शोर था
आज भी शोर है .........
क्यूँ ? क्यूँ ? क्यूँ ?
.............
शोर की ज़रूरत ही नहीं है
नहीं है ज़रूरत कौन कब कहाँ जैसे प्रश्नों की
क्यूँ चेहरा ढंका .... ???????
कौन देगा जवाब ?
जवाब बन जाओ
हुंकार बन जाओ
हवा का झोंका बन जाओ
उदाहरणों से धरती भरी है
उदहारण बन जाओ .........
पुरुषत्व है स्त्री की रक्षा
जो नहीं कर सकता
वह तो जग जाहिर नपुंसक है !
बहिष्कृत है हर वो शक्स
जो शब्द शब्द की नोक लिए
दर्द के सन्नाटे में ठहाके लगाता है
उघरे बखिये की तरह घटना का ज़िक्र करता है
फिर एक पैबंद लगा देता है
च्च्च्च्च की !
याद रखो -
यह माँ की हत्या है
बेटी की हत्या है
बहन की हत्या है
पत्नी की हत्या है
............... कुत्सित विकृत चेहरों को शमशान तक घसीटना सुकर्म है
जिंदा जलाना न्यायिक अर्चना है
दामिनी की आँखों के आगे राख हुए जिस्मों को
जमीन पर बिखेरना मुक्ति है ...........
...........
इंतज़ार - बेवजह - किसका ?
और क्यूँ?
ईश्वर ने हर बार मौका दिया है
बन जाओ अग्नि
कर दो भस्म
उन तमाम विकृतियों को
जिसके उत्तरदायी न होकर भी
तुम होते हो उत्तरदायी !
......
ढंके चेहरों को आगे बढकर खोल दो
नोच डालो दरिन्दे का चेहरा
या फिर एक संकल्प लो
- खुद का चेहरा भी नहीं देखोगे
तब तक .... जब तक दरिन्दे झुलस ना जायें
उससे पहले
जब जब देखोगे अपना चेहरा
अपनी ही सोच की अदालत में
पाप के भागीदार बनोगे
.........
जीवित लाशों की ढेर से दहशत नहीं होती तुम्हें ?
मुस्कुराते हुए
अपनी बेटी को आशीर्वाद देते
तुम्हारी रूह नहीं कांपती - कि
कल किसके घर की दामिनी होगी
किसके घर की अरुणा शानबाग
और इस ढेर में कोई पहचान नहीं रह जाएगी !!!
.......
badalna hi hoga...
जवाब देंहटाएंnahi to damini/aruna ya koi aur... wo fir hamari bahan, maaa bhi ho sakti hai...hame inme bhi bahan/maa ko dekhna hi hoga...
....
जवाब देंहटाएंद का चेहरा भी नहीं देखोगे
जवाब देंहटाएंतब तक .... जब तक दरिन्दे झुलस ना आयें
उससे पहले
जब जब देखोगे अपना चेहरा खुद का चेहरा भी नहीं देखोगे
....यही आग सबके सीने भी भभक उठे तो फिर दरिंदों के होश ठिकाने लगने में समय नहीं लगेगा
बहुत बढ़िया हुंकार भरी प्रस्तुति!!
यह आक्रोश बहुत ज़रूरी है...इसे बनाए रखना हर भारतीय की ज़िम्मेदारी है जब तक वे ही नहीं हरेक दरिंदअ अपने अंजाम तक ना पहुँच जाए .
जवाब देंहटाएंअब वाकई बदलाव का वक्त है
जवाब देंहटाएं............... कुत्सित विकृत चेहरों को शमशान तक घसीटना सुकर्म है
जवाब देंहटाएंजिंदा जलाना न्यायिक अर्चना है
दामिनी की आँखों के आगे राख हुए जिस्मों को
जमीन पर बिखेरना मुक्ति है ...........
...अब तो कुछ करना ही होगा सब को...
बस एक ..आह ...
जवाब देंहटाएंक्या कहूं ...नि:शब्द हूँ आपकी रचना पढ़कर ...कितनी बार... और कितनी बार इस समाज को उनकी जिम्मेदारियों का पाठ पढ़ाना होगा ....उसी समाज का हम भी हिस्सा हैं...दुःख और आक्रोश के अलावा कुछ भी तो नहीं कर पाते......और यह अन्याय है की सुर्ख़ियों में बढ़ता ही जा रहा है ....
जवाब देंहटाएंढंके चेहरों को आगे बढकर खोल दो
जवाब देंहटाएंनोच डालो दरिन्दे का चेहरा
या फिर एक संकल्प लो
- खुद का चेहरा भी नहीं देखोगे
तब तक .... जब तक दरिन्दे झुलस ना जायें
ऐसे कुकर्म को रोकने के लिए समाज और कानून व्यवस्था में परिवर्तन जरुरी है..संवेदनशील अभिव्यक्ति...
जवाब देंहटाएंआज़ आत्मिक परिवर्तन की जरूरत है ………सही कहा।
जवाब देंहटाएंढंके चेहरों को आगे बढकर खोल दो
जवाब देंहटाएंनोच डालो दरिन्दे का चेहरा
या फिर एक संकल्प लो
खुद का चेहरा भी नहीं देखोगे
तब तक,,,
जब तक दरिन्दे झुलस ना जायें,,,
आक्रोश भरी लाजबाब पन्तियाँ,,,,
recent post : समाधान समस्याओं का,
सबसे बड़ा कदम यह होगा कि आस-पास होते इस तरह के हादसों के विरुद्ध आवाज बुलंद करें...
जवाब देंहटाएंयह वक्त की जरूरत है और हमारा कर्त्तव्य भी..
सही मायने में परिवर्तन तभी संभव है जब हर ओर से एक ही आवाज़ आये , 1857 का विद्रोह हो या 1947 की क्रांति | हम सोच कर देखें तो समझ आ जायेगा | हर जीत के लिए एकता जरुरी है ,बात चाहे नारी मुक्ति हो या, देश की | इसके लिए स्त्री पुरुष दोनों को एक साथ आगे आना होगा |
जवाब देंहटाएंबदलाव होना लाजमी है।
जवाब देंहटाएंऐसे ही बदलाव की जरूरत है जिसमे इस दानवो को भस्म ही नहीं बल्कि किसी नाभिकीय प्रतिक्रियाओं के बीच वाष्पीकृत ही कर देना चाहिए. ऐसे लोगो के भस्म कर देने से धरती भी और गन्दी हो जाएगी.
जवाब देंहटाएंवो बहादुर लड़की जीना चाहती है ... मानसिक रूप से स्थिर है .... और अपने भविष्य के लिए आशान्वित है ....
जवाब देंहटाएंडॉक्टर्स उसकी यह हिम्मत देखकर अचंभित हैं ... कह रहे हैं ... "मन के घावों को उसने एक हद तक भर लिया है ,हमें चिंता है तो बस उसके शरीर के घावों की "
फिर हम क्यूँ हार मानें .....!!!!
मेरी दिल से दुआ है कि वह लड़की उस हॉस्पिटल के बेड से ठीक होकर खड़ी हो जाए ... और खुद उन लोगों को सजा दे।
तभी सच्चा न्याय होगा ..... !!!!
वो बहादुर लड़की जीना चाहती है ... मानसिक रूप से स्थिर है .... और अपने भविष्य के लिए आशान्वित है ....
जवाब देंहटाएंडॉक्टर्स उसकी यह हिम्मत देखकर अचंभित हैं ... कह रहे हैं ... "मन के घावों को उसने एक हद तक भर लिया है ,हमें चिंता है तो बस उसके शरीर के घावों की "
फिर हम क्यूँ हार मानें .....!!!!
मेरी दिल से दुआ है कि वह लड़की उस हॉस्पिटल के बेड से ठीक होकर खड़ी हो जाए ... और खुद उन लोगों को सजा दे।
तभी सच्चा न्याय होगा ..... !!!!
सच्चा आक्रोश ....
जवाब देंहटाएंइक तरफ इतना शोर और दूसरी तरफ ऐसी घटनाओं की पुनरावृति की ख़बरें .....
वक़्त वही रस्ता दिखा रहा है जो आपकी कलम ने सुझाया है
Right Approach...Thanks.
जवाब देंहटाएंआक्रोश आवश्यक है, आखिर हर चीज़ की एक सीमा होती. सभी को यह आवाज़ सुननी चाहिये.
जवाब देंहटाएंकुत्सित विकृत चेहरों को शमशान तक घसीटना सुकर्म है
जवाब देंहटाएंजिंदा जलाना न्यायिक अर्चना है
दामिनी की आँखों के आगे राख हुए जिस्मों को
जमीन पर बिखेरना मुक्ति है .....
बिलकुल सही ...
आग जलती ही रहनी चाहिए, वर्ना सिर्फ राख रह जाएगी....
जवाब देंहटाएं:(
जवाब देंहटाएं:'(
भावपूर्ण रचना----
जवाब देंहटाएंकुछ कह भी नहीं पाउँगा
Ro dena chahte hain.. magar ye sab aankho k lie itna aam ho gaya h ki ro bhi nahi pate.. :(
जवाब देंहटाएंआँख नम है
जवाब देंहटाएंन्याय की माँग में
जुल्म देख
"कुत्सित विकृत चेहरों को शमशान तक घसीटना सुकर्म है
जवाब देंहटाएंजिंदा जलाना न्यायिक अर्चना है
दामिनी की आँखों के आगे राख हुए जिस्मों को
जमीन पर बिखेरना मुक्ति है ..........."
यही गूँज हमारे मन में भी है। अत्यंत मार्मिक और सशक्त रचना।
जागो......अब तो जाग जाओ !
जवाब देंहटाएंहैवानियत को जड़ से मिटाओ ...
बहुत प्रभावशाली कृति
जवाब देंहटाएंनि:शब्द हूँ, मार्मिक रचना......
जवाब देंहटाएंइस शोर को आक्रोश को बदलाव में लाने की जरूरत है आज ...
जवाब देंहटाएंहिलाती हुई रचना है ...
सम्मिलित हार, प्रहार विकट है,
जवाब देंहटाएंमानव का मालिन्य प्रकट है।
दी ...!!!!
जवाब देंहटाएंभीतर का उबाल बाहर आने को आतुर ज्वालामुखी फटने को तत्पर ...सब ठहर गया हो जैसे ....नही कह पा रही शब्दों में ......!!!!!
बहुत ख़ूब!
जवाब देंहटाएंशायद इसे पसन्द करें-
कवि तुम बाज़ी मार ले गये!
जब तक नारी को देखने वाली पुरुष की नजर में बदलाव नहीं आएगा तब तक कुछ नहीं होगा...जब नजर बदलेगी तभी एक नारी में पुरुष को अपनी मां, बहन, बेटी या दोस्त नजर आएगी...
जवाब देंहटाएंनिशब्द हूँ ..मन आहत ...
जवाब देंहटाएंआस के दो शब्द ,आस्था और गहन आराधन ....कुछ रह ज़रूर निकलेगी ...निशब्द करते शब्द दी ॥
जवाब देंहटाएंजीवित लाशों की ढेर से दहशत नहीं होती तुम्हें ?
जवाब देंहटाएंमुस्कुराते हुए
अपनी बेटी को आशीर्वाद देते
तुम्हारी रूह नहीं कांपती - कि
कल किसके घर की दामिनी होगी
किसके घर की अरुणा शानबाग
और इस ढेर में कोई पहचान नहीं रह जाएगी !!
antarmn ko jhakjhor dene wali rachana .....abhar Rashmi ji .
पुरुषत्व है स्त्री की रक्षा
जवाब देंहटाएंजो नहीं कर सकता
वह तो जग जाहिर नपुंसक है !
ये बात उन नपुंसकों को कौन बताये?
दुःख तो इस बात का है कि इतनी चर्चा के बावजूद कल ही रेप के चार और केस सामने आयें ... वो भी पंजाब, बिहार और महाराष्ट्र मिलकर! पूरे देश में ऐसे नपुंसक हैं, और बहरे भी ...इस शोर को कहाँ सुन रहे हैं ?? इनके लिए बस चुन चुन के इनका वध ही एकमात्र उपाय है।
gumgeen nazara hai......
जवाब देंहटाएंजवाब बन जाओ
जवाब देंहटाएंहुंकार बन जाओ
हवा का झोंका बन जाओ
उदाहरणों से धरती भरी है
उदहारण बन जाओ ......…
ji.
आक्रोश बेहद जरूरी है , उसका प्रदर्शन नितांत आवश्यक है , सरकार को सुधरना ही होगा लेकिन इन सब कामों से पहले आवाम को अपनी सोच में परिवर्तन लाना होगा |
जवाब देंहटाएंजो आज सरकार है वो कल आवाम थी , जो आज आवाम है वो कल सरकार होगी |
और बेहद दुःख के साथ मैं ये कहना चाहूँगा कि आवाम की सोच में परिवर्तन लाने के लिए अभी भी बहुत लंबा रास्ता तय करना है |
कभी सोचता हूँ कि क्या आवाम इस योग्य है कि जो उस पीड़िता को वापस उसकी सामान्य जिंदगी दे पाती , क्या इस घटना के बाद नारी या यूँ कहूँ कि इंसानियत के ऊपर होने वाले छोटे-छोटे प्रहार ही रुक सके , शायद नहीं और ऐसा काफी कुछ है जिसके लिए आवाम अभी शायद मानसिक रूप से तैयार नहीं है , जो कि उसे होना होगा तभी इस तरह के अमानवीय कृत्य रुक सकेंगे |
कानून तभी तक कारगर है जब तक उसका क्रियान्वयन पूरी ईमानदारी और सख्ती से हो |
सादर